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________________ का विषय न तो भौतिक सत्तावान है और न मनोवैज्ञानिक सत्तावान है, बल्कि पदार्थ का स्वरूप है। समस्त ज्ञान में यह 'क्या' ही सार तत्त्व अथवा स्वरूप है जो यथार्थता का दावा रखता है। स्वप्नों में भी हमारे सामने 'क्या' आता है, किन्तु हमें यह पता चल जाता है कि स्वप्नगत पदार्थों की कोई यथार्थसत्ता नहीं है। उनका अस्तित्व सम्बन्धी उपलक्षित अनुमोदन उचित नहीं है। समस्त ज्ञान स्वरूपों का ही है, जिसमें सत्ता उपलक्षित रूप में आरोपित होती है। इस उपलक्षित विश्वास में कभी-कभी भ्रांति भी होती है। स्वयं ज्ञान की अपनी क्रिया द्वारा वस्तु-विषय पदार्थ से सम्बन्ध रखता है यह नहीं जाना जाता, क्योंकि ज्ञान का स्वतः प्रामाण्य नहीं है। न्याय का मत है कि ज्ञान की यथार्थता अपने आप में सिद्ध नहीं है, बल्कि वह अन्य साधनों द्वारा (परतः प्रमाण) प्रमाणित की जाती है। सांख्य का विचार है कि यथार्थता और अयथार्थता बोध के अन्दर निहित है। किन्तु मीमांसकों का विचार है कि यथार्थ तो बोध के अपने ही कारण है, पर अयथार्थता बाह्य कारणों से होती है। इसलिए जब तक अन्यथा सिद्ध न हो, बोध को यथार्थ ही समझना चाहिए। बौद्ध विचारकों का मत है कि अयथार्थता तो सब बोधों के साथ सम्बद्ध है, किन्तु यथार्थता को सिद्ध करने के लिए अन्य साधनों की आवश्यकता होती है। इन सब मतों के विरोध में नैय्यायिक का कहना है कि यथार्थता और अयथार्थता की स्थापना बोध से स्वतन्त्र अन्य किसी वस्तु से होती है। यदि प्रत्येक बोध स्वयं स्पष्ट होता तो संशय की संभावना ही न होती। इसलिए यथार्थता का निश्चय तो सत्य घटनाओं को देखकर ही किया जाता है। कल्पना कीजिए कि हम एक पदार्थ को प्रत्यक्ष देखते हैं। हमें तुरन्त (तत्काल) यह निश्चय नहीं हो सकता कि जिस पदार्थ को हम देख रहे हैं वह ठीक उसी परिणाम और आकृति का है, जैसा कि हमें दिखाई देता है। हम देखते हैं कि सूर्य घूम रहा है। किन्तु वस्तुतः वह घूमता नहीं है। इसलिए पदार्थ के प्रत्यक्ष अथवा तात्कालिक ज्ञान के साथ उसकी यथार्थता का विश्वास स्वतः संलग्न नहीं है। हमें ज्ञान की यथार्थता न केवल पुनर्जन्म की मध्यस्थ प्रक्रिया द्वारा ही प्राप्त हो सकती है। जो बात प्रत्यक्ष ज्ञान के विषय में सत्य है, वही उन सब ज्ञान के विषय में भी सत्य है, जो हमें अन्य साधनों से प्राप्त होते हैं। उपर्युक्त सिद्धान्त पर किये गए कतिपय आक्षेपों पर नैयायिकों ने विचार किया है। एक प्रमाण जो हमें किसी पदार्थ का बोध कराता है, स्वयं किसी अन्य प्रमाण का प्रमेय कैसे बन सकता है? जैसे कि एक तराजू जब उससे कोई वस्तु तौली जाती है, तो वह साधन है, किन्तु जब स्वयं तराजू वजन जानता हो तो वह पदार्थ बन जाएगी, जिसके वजन के लिए अन्य तराजू का वजन जानना हो तो वह पदार्थ बन जाएगी, जिसके वजन के लिए अन्य तराजू की आवश्यकता होगी। ठीक उसी तरह ज्ञान का साधन जब किसी प्रमेय पदार्थ की स्थापना करता है तो वह साधन है, परन्तु जब उसकी अपनी स्थापना की जाती है तो वह प्रमेय बन जाता है। वात्स्यायन का कहना है कि "बुद्धि अथवा ज्ञान वस्तुओं के परिज्ञान के कार्य में स्वयं साधन अथवा प्रमाण है किन्तु जब उसका स्वयं का 17
SR No.009501
Book TitleGyan Mimansa Ki Samikshatma Vivechna
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages173
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size1 MB
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