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________________ constituting the goal or end which the whole process is seeking to reach. Similarly with the complited statue." वस्तुतः अरस्तु का परिवर्तन न हिराक्लीटस की तरह है और न पार्मेनाइडीज की तरह ही। पार्मेनाइडीज की दृष्टि में परिवर्तन भ्रम है जबकि अरस्तू की दृष्टि में न्याय–वैशेषिक की तरह परिवर्तन वास्तविक है। इन्होंने भी न्याय-वैशेषिक दार्शनिकों की तरह सामान्य और विशेष की वास्तविक सत्ता को स्वीकार किया है। किन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं लगाया जा सकता है कि इनका कार्य-कारण सम्बन्ध प्लेटो की अवधारणा से बिल्कुल विपरीत है। इनका कहना मात्र यह है कि वस्तुतः तत्व विशेष व्यक्ति ही है। यह सदा एक और वही रहता है। सामान्य को व्यक्तिरूपी तत्वों के अनुगत रहने के कारण, गौण रूप से तत्त्व कहा जाता है। इन दो विरोधी धाराओं का समन्वय अरस्त नहीं कर सके हैं। एक ओर तो प्लेटो के सामान्य का खण्डन करने के लिए उन्होंने व्यक्ति को ही वास्तविक तत्त्व माना और दूसरी ओर प्लेटो से ही प्रभावित होकर उन्होंने सामान्य को ही एकमात्र शुद्ध तत्त्व कहे जाने का अधिकार दे दिया है। शायद उनका तात्पर्य यही था कि व्यक्तियों से भिन्न और परे सामान्य की सत्ता नहीं मानी जा सकती है। कुछ भी हो अरस्तु इसका समुचित समाधान नहीं कर सके हैं। इन्होंने potentiality और actuality के भेद को भी समाप्त नहीं किया और इसके चलते ये द्वैतवादी बन गये हैं। अरस्त की दृष्टि में द्रव्य विशेषता का जनक है। यही एक तत्त्व निर्माता है। यही परिणाम और गतिशील होते हुए भी वही बना रहता है। द्रव्य जड़ता का प्रतीक है। इस संसार की प्रत्येक वस्तु द्रव्य जड़ता का प्रतीक है। इस संसार की प्रत्येक वस्तु द्रव्य और स्वरूप का सम्मिश्रण है फिर प्लेटो के एकवाद का स्वयं खण्डन हो ही जाता है। उधर उससे बचना ईमानदारी नहीं है। वस्तुतः द्वैतवादियों के द्वारा प्रस्तुत कार्य-कारण-नियम में जो त्रुटियां बतलाई गयी हैं उससे अरस्तु भी मुक्त नहीं हो पाये हैं। इनके तत्त्व मीमांसीय एवं ज्ञान मीमांसीय दृष्टिकोण में द प्रोबलेम ऑफ चेंज की अवधारणा को दर्शाते हुए सी.ई.एम. जोड ने ठीक ही लिखा है कि "In view of the importance of this conception both in its own right and as an explanation of the fact of change, it will be desirable to consider it is rather grater detail. First, however, it will be convenient to round off the brief sketch of some of the leading notions of Aristotle's metaphysics contained in this and in the preceding chapter by an account of his doctrine of the four causes, which Aristotle put forward as constituting a final explanation of the present world order." इन्हीं मान्यताओं के कारण ईश्वर फर्नीचर बनाने वाले कारीगर अथवा बढ़ई के समतुल्य बनकर रह गया है। वह प्लेटो और शंकर के ईश्वर की तरह सर्वस्व नहीं दीखते हैं। इसीलिए इनके तर्कशास्त्र की आलोचना आधुनिक तर्कशास्त्रियों ने की है। सी.ई.एम. जोड ने लिखा है, "Of recent years, however, Aristotelion Logic has been subjected to serious criticism." 115
SR No.009501
Book TitleGyan Mimansa Ki Samikshatma Vivechna
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages173
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size1 MB
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