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________________ दशलक्षण धर्मके सर्वये । `` `` ( ३ ) आजय . ८९ १५.५५ आर्जव भाव घरे मनमें जिससे भव नाशके मोक्ष सिधारे । हवत जो भवसागर में तिस हाथ पकड़ भवपार उतारे || संपत देन उदार बड़ो, यह आर्जव कर्मको मान विदारे । 'ज्ञान' कहे वह मृह बड़ो भव मानव पाय न आर्जव धारे ॥३॥ ( ४ ) सत्य | सत्य नहीं जिसके घट राय वा जग देखत इव भीतर सो नर क्यों गिनती में गिनाये । गयो गति नर्क महा दुख पाये ॥ झूठ बसे जिसके मुखमें जगमें नर ते नरके हि समाये । 'ज्ञान' कहे भवतारनको नौका नहि अन्य जु सत्य विना ये ||४|| (५) शौच । शौच खगे जिय लोभ त्यजन मन शुद्ध रहे परमारथ केरो । इन्द्रिय पंच रहें अपने वश कर्म कपायको पात घेरो ॥ मंत्र स्नान करें मुनिपुंगव, पावत नाहि संसारको फेरो | 'ज्ञान' कहे जग शौच यही हग ज्ञान चरण परमारथ हेरो ॥५॥ ( ६ ) संयम । संगम दोऊ कहे जिनराजने संयमसे शिव मारग लहिये । पाप लगे, सत्र संयमसे हर, कर्म कठोर कपाय दहीजे ॥ संयमसे भवपार तरे नर संयम मुक्ति-सखा जग कहिये । 'ज्ञान' कहे हि मानवदेह विना शुभ संयम कैसेके रहिये ||६||
SR No.009498
Book TitleDash Lakshan Dharm athwa Dash Dharm Dipak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages139
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, M000, & M005
File Size6 MB
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