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________________ उत्तम ब्रह्मचर्य । [८५ ज्ञान, विवेक. विद्या तथा सदाचारको तो जड़मूलसे उखाड़ फेंकता है। एक कविन कहा है कि तब तक ही विद्या व्यसन, धीरज अरु गुरुमान । जब तक वनिता नयन विप, पैठो नहिं हिय आन ॥१॥ सुनने हीसे इतिश्री नहीं हुई, परन्तु लोगोंने आगे और भी अनानाग्में पा फैलाये। उन्होंने वेश्या तथा पर वनिताओं तथा पापुरुप सेवन भी आम्भ कर दिया, जिससे अनाचार तो फैला ही किन्तु बल, वीर्य और सम्पत्तिका भी सर्वनाश होगया, अनेकों रोग संमाग्में फैल गये, मार, काट व ईपभाव बढ़ गया। हजारों मृत्यु केवल इमी पापस संसारमें होती हैं। यह तो निश्चित ही है कि कोई भी पुरुष अपने संबंध रखनेवाली तथा स्वविवाहित झोकी ओर किसी अन्य पुरुपकी दृष्टि होना मात्र भी नहीं सह सकता है परन्तु खेद तो यह है कि वह उपर्युक्त बात परकी झोके संबंध भूल जाता है। इसी पापमं मवम्य खोगया और खो जायगा । किसी कविने कहा हैजाही पाप इन्द्रकी सहस्रभग देह भई, जाही पाप चन्द्रमें कलंक आय छायो है। जाही पाप रातिके बगती शिशुपाल भगो, जाही पाप कीचकको कोच ठहरायो है ।। जाही पाप रामने हतो थो राय वालीको, __जाही पाप भस्मासुर हाथ दे जरायो है। जाही पाप रौना(रावण)के न छौनारहो भौना माहि, सो ही पाप लोगन खिलौना कर पायो है ॥
SR No.009498
Book TitleDash Lakshan Dharm athwa Dash Dharm Dipak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages139
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, M000, & M005
File Size6 MB
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