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________________ उत्तम आकिञ्चन्य। [७१ केवल धन, धान्यादि या पदाकि न होने मात्र से अपरिग्रहमानिन्य नहीं कहा जामकता है क्योंकि यदि बाह्य वस्तुओंका मटाना ही अपरिपत्र मान लिया जाय. तो बालक, पशु, पक्षी बादि तमा गरीय निर्धन, जंगली मनुष्य मीलादिक जो प्रायः नग्न ही रहने में भी अपरिग्रही समझा जावंगं, परन्तु ऐसा नहीं मायोकि उनको लामालगय कर्मक तीर उदयसे यदापि से पदार्थ प्राम नहीं हुआ है. तो भी उनको उन वस्तुओंके प्राप्त कर की अवश्य है । इमलिय व बाहरसे अपरिग्रही होते हुए भी चापरिनटी . । क्योंकि वे निरन्तर चाहकी दाहमें दहा करते हैं। सनिय उन बेनारोंको मुगल शांति कहाँ ? इसीसे आचार्योने और भी पग्निटके याभ्यंतर और बाल दो भेद कहकर बुलासा कर दिया है। अर्थत लामाक नौदह प्रकारक विभावभाव सो ही अन्तरंग परिप्रष्ट हैं। जैसे-क्रोधे, माने, माया, लोभ, मिथ्यात्व, राग, द्वेष, हाय, गोम, मैये. रति, अनि, जुगुप्सी, वेद इत्यादि । और बाहिरके भोगोरगोग सम्बन्धी दश जातिक चेतन अचेतन समस्त पदार्थ, बास परिग्रह हैं । जैसे धने-गाय, महिपी, घोड़ा, हाथी आदि जानवर और सवारी आदि, धान्य-अन्नादिक भोज्य पदार्थ, क्षेत्र सेतादि जमीन, जागीर आदि, वास्तु-रहने के मकान आदि, हिरण्य-रूपया. पैसा, मुहर आदि मुद्रित सिके, सुवर्ण-आभूषणादि यमादिक, दासी, दास, कुप्य-वखार, बंडा, खौडियादि, भान्ड-थाली, लोटा आदि खानेपीने व रांधने के बर्तन गादि । ... अन्तरंग परिग्रहका त्याग किये बिना बाह्य परिग्रहका त्याग
SR No.009498
Book TitleDash Lakshan Dharm athwa Dash Dharm Dipak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages139
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, M000, & M005
File Size6 MB
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