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________________ པ ་་༩་ད ད ད ད ་ ་་ ་་་ད་ ་འ ་་་ ་ ་ 、 、 ནས་ནང་ ་ ད་ སདར་ནས श्रीदशलक्षण धर्म । और ममत्वका कारण वस्तिका तकका त्याग करे, उसके उत्तम त्याग 'धर्म होता है । इसीको आगे और भी कहते हैं । (स्वा० का० अ०) " त्यजतीति त्यागः" अर्थ.त् त्यजना, छोड़ना व देना इसे त्याग कहते हैं। उत्तम विशेषण इसकी निर्मलताका सूचक है। अर्थत् जिस दानमें किसी प्रकार मान बड़ाई या छल कपट आशा व बदला पानेकी इच्छा या ख्याति लाभादि कषायोंकी पुष्टि न की गई हो, उसे ही उत्तम दान कहते हैं। तात्पर्य-दान उसे कहते हैं, जिससे स्वपरका उपकार हो । जैसा कहा है-'अनुग्रहार्थ स्वस्यातिसर्गो दानम् अर्थात् अनुग्रहके लिये अपने द्रव्यसे ममत्वका त्याग करना सो दान है । वास्वमें दान देनेसे, उस वस्तुसे जो दानमें दी जाती है, अपना ममत्व छूटता है और वह जिसे दीजाती है, उसकी अभीष्ट सिद्धि होने से उसके आर्त परिणामोंकी न्यूनता होती है इसीलिये स्वपरोपकरार्थ कहा गया है। जिस दानसे दाताके मानादि कषायें बढ़े व पात्रके विषयोंकी वृद्धि हो, अथवा एकके दानसे बहुतोंका घात होता हो, वह दान नहीं कहा जाता है; क्योंकि उसमें स्वपरका अपकार होता है। दान दो प्रकारका है-अंतरंग अर्थत् स्वदान और बाह्य अर्थात् 'परदान। अंतरंग दान ( स्वदान ) उसे कहते हैं, जिसमें अपने आत्माको अनादि कालके लगे हुए मोह, राग, द्वेष, ममत्वादि भावोंसे जिनके कारण वह सदा भयभीत और दुःखी रहता है, छुड़ाकर निर्भय कर देना। बाह्य दान ( पग्दान ) वह है, जिसमें दूसरे जीवोंके उपकारार्थ
SR No.009498
Book TitleDash Lakshan Dharm athwa Dash Dharm Dipak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages139
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, M000, & M005
File Size6 MB
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