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________________ उत्तम तप । [५७ रहता है । भले ही लोग उसे गाली देवें, मारन ताड़न करें, घाणीमें पेलें, करवतसे चीरें फाड़ें, सिंह व्याघ्रादि दुष्ट पशु भक्षण करें व विदारे, शीत, उष्ण आदिका तीव्रतम प्रकोप हो अथवा संपूर्ण रोग' एकत्र होकर एकसाथ उदयमें आजावें और असहनीय तीव्र वेदना आजाय तो भी वे अपनेको सुमेरुवत् स्थिर रखते हैं । इसीसे वे राग द्वेषके न होनेके कारण नवीन कर्मोको नहीं बांधते और प्राचीन अनन्त जन्मोंके किये हुए कर्मोको भी बहुत थोड़े समयमें भस्म कर ड लते हैं। इसप्रकार संवर पूर्वक निर्जरा करने और पश्चात् सम्पूर्ण कौके नष्ट होजानेपर अविनाशी अव्याबाध स्वाधीन सुख (मोक्ष) को प्राप्त होते हैं, इसलिये उत्तम तप आत्माका ही स्वरूप कहा जाता है। ___ उत्तम तपस्वी नग्न (दिगम्बर) मुनि ही होते हैं, जिनका स्वरूप इस प्रकार है " विषयाशावशातीतो, निरारंभोऽपरिग्रहः । __ज्ञानध्यानतपोरक्तस्तपस्वी सा प्रशस्यते ॥१॥" अर्थात्-जो साधु विषयोंकी आशा और आरंभ तथा परिग्रहसे रहित होकर निरंतर ज्ञान, ध्यान और तपमें लीन रहते हैं, वे ही तपस्वी प्रशंसनीय हैं। ___तपश्चरण यदि विषयोंकी आशासे करना, अर्थत् जंत्र, मंत्र तंत्र... व औषधादि सिद्धि करनेको या अन्य लौकिक प्रयोजन ख्याति, लाभ, पूजादिकी इच्छासे घर छोड़कर वनवास करना और नाना प्रकार कायक्लेश करना केवल आडम्बर मात्र व्यर्थ है क्योंकि इससे उल्टा संक्लेश भावोंके होनेसे दुर्गतिका ही बंध होता है। :
SR No.009498
Book TitleDash Lakshan Dharm athwa Dash Dharm Dipak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages139
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, M000, & M005
File Size6 MB
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