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________________ ५४] श्रीदशलक्षण धर्म । ནvདད་ ་་ ་་ ་ ན་རས ་ ་ ་པན་ यथाशक्ति साधन करते हैं। यह देशसंयम एकादश प्रतिमाओंमें विभक्त है जो ग्रन्थान्तरों श्रावकाचारोंसे जानना चाहिये । जो पुरुष उत्तम संयम धारण नहीं कर सकते वै देशसंयमद्वारा क्रमसे अपनी शक्तिको बढ़ाते हैं और जब सब प्रकारसे इन्द्रियां वश हो जाती हैं, तब के सकल संयनको प्राप्त होते हैं । सो ही कहा है काय छहों प्रतिपाल, पंचेन्द्री मन वश करो। संयम रतन सम्हाल, विषय चोर बहु फिरत हैं । उत्तम संयम गह मन मेरे, भव भवके भाजें अघ तेरे । स्वर्ग नर्क पशुगतिमें नाही. आलस हरन करन मुख ठाहीं ।। ठाही मही जल अग्नि मारुत, रूख त्रस करुणा धरें। , स्पर्श रसना घ्राण नयना, कान मन सब क्श करें। जिस विना नहिं जिनराज सीझे, तू रुल्यो जग कीचमें। . इक घड़ी मत विसरो भषिक, तुझ आयु यम मुख बीचमें It . उत्तम तप। . इहपरलोयसुहाणं णिरवेक्खो जो करेदि समभावो । विविहं कायकिलेस तबधम्मो णिम्मलो तस्स ।। ७ ।। ___ अर्थात्--जो इस लोक और परलोक सम्बन्धी सुखोंकी अपेक्षा न करके शत्रु, मित्र, कांच, कंचन, महल, मसान, सुख, दुःख, निंदा प्रशंसा आदिमें राग, द्वेप, भाव विना किये समभाव रखते हैं और निर्वाछित हुआ अनशनादि बारह प्रकार तपश्चरण करते हैं, उनके उत्तमतप होता है, सो ही आगे बताते हैं (स्वा० का० अ.)
SR No.009498
Book TitleDash Lakshan Dharm athwa Dash Dharm Dipak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages139
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, M000, & M005
File Size6 MB
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