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________________ ४२ ] श्रीदशलक्षण धर्म । अर्थात् — जबतक रोगोंने नहीं घेरा है, बुढ़ापा नहीं आया है और आयु क्षीण नहीं हुई है, तबतक कल्याण कर लेना चाहिये । क्योंकि " सदा दौर दौरा जु रहता नहीं । गया वक्त फिर हाथ आता नहीं || " 1.1. यही कारण है कि साधु आदिका शरीर यद्यपि ऊपरसे मलीन दिखता है, परन्तु उनका अन्तरंग आत्मा तो सदा शुद्ध ही होता है । परन्तु सँसारी गृहस्थियों का चरित्र इससे बिलकुल उल्टा हैअर्थात् वे केवल शारीरिक शुद्धिको ही शुद्धि मानते और गंगादि नदियों में नहाकर अपनेको कृत्यकृत्य मान बैठते हैं, परन्तु उनकी यह भूल है, यद्यपि शारीरिक अथवा बाह्य शुद्धि गृहस्थियों को अत्यावश्यक. है, सो वह तो उन्हें रखना ही चाहिये, क्योंकि देह, गेह, भोजनादि बाह्य शुद्धि विना प्रथम तो उनका व्यवहार मलीन होजाता है, उनके नाना प्रकार के रोम उत्पन्न होजाते हैं, चित्तकी प्रसन्नता नष्ट होजाती है, सदा आलस्य आया करता है और लोकनिंद्य भी होजाते हैं । इसके सिवाय चाह्य शुद्धि गृहस्थोंको अन्तरंग शुद्धिका भी कारण है, तो भी यह शुद्ध अन्तरंगकी शुद्धि विना विशेष लाभकारी नहीं होती । इसलिये बाह्य शुद्धिके साथ साथ अन्तरंग शुद्धिका होना आवश्यक है । सबसे अधिक अन्तरंग मैलापन आत्मामें लोभसे होता है । देखो, यह (सूक्ष्म. लोभ भी ) उपशम ं श्रेणीवाले मुनियों तकको भी ग्यारहवें गुणस्थान से गिराकर नीचे पटक देता है। कहा भी है कि
SR No.009498
Book TitleDash Lakshan Dharm athwa Dash Dharm Dipak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages139
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, M000, & M005
File Size6 MB
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