SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 25
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ GANAawan 's - 1 MWW W iNewwwwwwwwwwwwwNY उत्तम मार्दव । [२१. उस स्त्रीने दुःखित होकर अपने पतिसे निम्न प्रकार प्रश्न किया और जिससे वह पुरुष लज्जित होकर निरुत्तर होगया था। वह पूछती है---- जाऊँ कहूँ न रहूँ घरमें, सहूं दुःखरु सौख्य सबहि कठिनाई । नीचन ऊँचनके वह (लक्ष्मी) जात है. आवत जात न नेक लजाई ॥ मेरे हू देखत गई कितके घर मैं न दियो पग पौर पराई । कारण क्या कुश लेश पिया,जाते मुहि सिन्धुसुता(लक्ष्मी)ठहराई॥ तात्पर्य-ऐसी चंचल लक्ष्मीका मान करना व्यर्थ है। यदि अपने तप, व्रत, संयम आदिका मान करते हो, तो तुम्हारे जैसा मूर्ख संसारमें और कोई भी नहीं है, क्योंकि तुम आत्मकल्याणके कारण तपको बढ़ाई पानेकी तुच्छ इच्छासे नष्ट कर देते हो अर्थात् जिस जप, व्रत, तप, संयमसे स्वर्ग मोक्ष प्राप्त होता उसे केवल मान बड़ाईमें ही बेच देते हो और जब निरंतर तुम्हें अपने तप संयमके मानका ही ध्यान बना रहता है तब तुम तप संयम व आत्मध्यान कत्र करते हो या करोगे ? जब तप ही नहीं करते हो तो केवल कपट भेष बनाकर लोगोंको और अपनी आत्माको ठगते हो। ऐसा तप करना व्यर्थ है, जिसमें मान पुष्ट किया जाय । क्योंकि तप तो इच्छाओंके रोकनेको कहते हैं जैसा कि कहा है-" इच्छानिरोधस्तपः" और तुम तो निरंतर मान पानेकी इच्छामें ही मन रहते हो इसलिये तपका मद करना भी व्यर्थ है । इसप्रकार विचार कर उत्तम पुरुष मान कषायको छोड़कर अपना स्वाभाविक मार्दव गुण प्रगट करते हैं। . इस मार्दव गुणसे आत्मीक-स्वाभाविक सुख तो मिलता ही है, किन्तु लौकिक सुख भी मिलता है। प्रकटमें नम्र-विनयीका कोई
SR No.009498
Book TitleDash Lakshan Dharm athwa Dash Dharm Dipak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages139
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, M000, & M005
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy