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________________ •mmawwwwwVERN. " M.inhnimonwey" १४] श्रीदशलक्षण धर्म । कहा करते हैं कि देखो "इक लख पूत सवा लख नाती । ता रावण घर दिया न बाती॥" तात्पर्य-गर्च (मान अहंकार) मत करो, त्रिखण्डी रावणका भी मान नहीं रहा है तो औरोंकी क्या बात ? इत्यादि । सो जब इस प्रकारके मान कर्मका क्षय वा उपशम होता है तभी आत्माका मार्दव नामक स्वाभाविक गुण प्रगट होता है। इस गुणके प्रगट होते हुए जीव अपने सिवाय अन्य समस्त जीवोंको अपने समान समझता है, तब उसे किसीसे रागद्वेष नहीं होता । वह विचारता है कि सब जीव समान हैं, कोई कम-बढ़ -नहीं है। और जब कोई कम-बढ़ है ही नहीं, तब मैं जिनको आधीन करना चाहता हूं, जिनको मैं अपमानित करना चाहता हूं, जिन्हें आज्ञाकारी बनाकर नमस्कार कराना चाहता हूं, वे सब मेरे ही -समान हैं। फिर समान समानमें अधिकारी और अधिकृत भाव कैसा? और तू जो अभी अपने आपको बड़ा समझता है, सो जब नरक . 'पशु आदि गतियोंमें, हीन सेवक देवोंमें व नीच गोत्रीय मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ था, तब वह तेरा बड़प्पन कहां चला गया था? तू सैकड़ोंवार क्या असंख्यात वार नरक निगोदमें गया, एक पाईकी भाजी । खरीदनेवालेके यहां रूकनमें चला गया, मैलेका कीड़ा हुआ, तब तेरा बड़प्पन कहां चला गया था ? ____ आज जो तूने यह उत्तम कुल, बल, ऐश्वर्य वा रूपादिक पाये , हैं, यह सब तेरे पूर्वोपार्जित शुभ कर्मोंका ही फल है सो कर्म अपनी
SR No.009498
Book TitleDash Lakshan Dharm athwa Dash Dharm Dipak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages139
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, M000, & M005
File Size6 MB
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