SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 14
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०] श्रीदशलक्षण धर्म। . स्वभाव ) है, उसे तो हरण नहीं करता है। अर्थ.त् यह रङ्क मेरे अविनाशी, सच्चिदानन्द अखण्ड स्वरूप चैतन्य आत्माको तो देख ही नहीं सकता, तत्र पीड़ा किसे देगा ? और जिसे यह मारता काटता वांधता व हरण कर रहा है, वह तो मेरा स्वरूप ही नहीं है । वह जड़ अत् अचेतन है, नाशवान् है। किसी न किसी दिन इसका वियोग तो होना ही है सो आज इसीके हाथसे सही। और यदि यह मेरे प्राण हरनमें ही प्रसन्न है, तो अच्छा ही है। मेरा जो पूर्वस्त कर्मोंका इससे वैर था, सो यह अभी मेरी सावधान अवस्थामें लिये लेता है । यह इसका मुझपर बड़ा उपकार है । जो कदाचित् असावधान अवस्थामें प्राण हरण करता, तो संभवतः मेरा कुमरण होकर मैं दुर्गतिमें चला जाता। ___ इसलिये मेरा कर्तव्य है कि मैं इस पूर्वकर्मकृत आये हुए. उपसर्गको शांतिपूर्वक सहन कर समाधिमरण सहित प्राण त्याग करूँ। . इसीमें मेरा कल्याण है । इसलिये वे ऐसा विचार करके कि खम्मामि सब जीवानां सव्वे जीवा खमंतु मे। मित्ती मे सव्व भूदेसु वैरं मज्झ न केणवि ॥१॥ अर्थात्-मैं सब जीवोंको क्षमा करता हूँ, सब जीव मुझपर' भी क्षमा करो, मेरे सबसे मित्रभाव है, मुझे किसीसे भी वैर-द्वेषभाक ' नहीं है, उत्तमक्षमा धारण करते हैंतात्पर्य-मित्र क्षमा सम जगतमें, नहीं जीवको कोय । __ अरु वैरी नहीं क्रोध सम, निश्चय जानो लोय ॥ . सोही पं० द्यानतरायजीने कहा है- । .. .
SR No.009498
Book TitleDash Lakshan Dharm athwa Dash Dharm Dipak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages139
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, M000, & M005
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy