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________________ NEVEEVENTEENENEVENTNINGENE मिलने पर भी सम्यक् विचार रूप शक्ति प्रकट करके श्रद्धान से नहीं चिगते । ।११५ । । (४३) जैसे प्रकटपने सारे अंगों से सहित गाड़ी भी एक धुरी के बिना नहीं चलती वैसे धर्म का बड़ा आडम्बर भी सम्यक्त्व से रहित फलीभूत नहीं होता अतः सम्यक्त्व सहित ही व्रतादि धर्म धारण करना योग्य है । ।११६ । । (४४) धर्म का स्वरूप जानने वाले सम्यक्त्वयुक्त जीवों का उन अज्ञानी जीवों पर रोष नहीं होता जो धर्म का स्वरूप और परमार्थ गुण रूप हित व अहित को नहीं जानते । ।११७ ।। (४५) व्रतादि का अनुष्ठान तो दूर ही रहो, एक सम्यक्त्व ही के होते भी नरकादि दुःखों का अभाव हो जाता है । । १२७ ।। (४६) इस निकृष्ट काल में सम्यक्त्व बिगड़ने के अनेक कारण बन रहे हैं फिर भी जो जीव सम्यक्त्व से चलायमान नहीं होते उन्हें मैं प्रणाम करता हूँ । ।१३३ । । (४७) अणुव्रतादि रूप ऊपर का धर्म धारण करने का जिनका भाव रहता है वे सम्यग्दृष्टि हैं । ।१४२ । । (४८) जिनके साधर्मी से तो अहित है और बन्धु - पुत्रादि से अनुराग है उन्हें सिद्धान्त के न्याय से प्रकटपने सम्यक्त्व नहीं जानना । सम्यक्त्व के अंग तो वात्सल्यादि भाव हैं सो जिनको साधर्मी से प्रीति नहीं है उन्हें सम्यक्त्व नहीं है और पुत्रादि से प्रीति तो मोह के उदय से सब ही के होती है, उसमें कुछ सार नहीं है - ऐसा जानना । । १४७ ।। (४९) हे सुगुरु ! हे प्रभो ! हमारा स्वामिपना ऐसा करो जिससे सामग्री का सुयोग होते हमें सम्यक्त्व सुलभ हो जाये । । १६० ।। T (५०) रागादि दोषों से युक्त कुदेव को त्यागकर वीतराग देव को हृदय में धारण करना, वस्त्रादि परिग्रहधारियों का कुगुरु रूप से विचार करके निर्ग्रथ गुरु के यथार्थ स्वरूप का ध्यान करना तथा हिंसामय धर्म को कुधर्म जानकर उसका दूर ही से त्याग करके दयामय धर्म की निशिदिन भावना करनी-ये ही सम्यग्दर्शन मूल कारण हैं, इनके विचार में कभी भी आलस्य - प्रमाद नहीं करना चाहिये | | अन्तिम सवैया । । 52
SR No.009487
Book TitleUpdesh Siddhant Ratanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Bhandari, Bhagchand Chhajed
PublisherSwadhyaya Premi Sabha Dariyaganj
Publication Year2006
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size540 MB
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