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________________ (२५) 'हम तो कुगुरुओं को ही सुगुरु के समान जानकर पूजेंगे, गुणों की परीक्षा करके हमें क्या करना है'-ऐसा यदि कोई कहता है तो उसका निषेध है कि 'अति पापी और परिग्रहादि के धारी कुगुरुओं को तुम सुगुरु के समान नहीं मानो' ||१३० ।। (२६) भगवान की वाणी में स्थान-स्थान पर कहा गया है कि 'जो परिग्रहधारी विषयाभिलाषी आदि हैं वे कुगुरु हैं उन्हें सुगुरु नहीं मानो' सो तुम उस वाणी को प्रमाण करो ।।१३२।। (२७) रत्नत्रय का साधकपना साधु का लक्षण है सो निश्चय दृष्टि से अन्तरंग तो दीखता नहीं परन्तु व्यवहारनय से सिद्धान्त में जो महाव्रतादि आचरण और गुरुओं के योग्य क्षेत्र-काल कहा है उसके द्वारा उन्हें परख लेना चाहिये कि वह इनमें है या नहीं सो गुरुओं के योग्य जो क्षेत्र-काल न हो वहाँ पर जो स्थित हों और पाँच महाव्रतादि का आचरण जिनमें नहीं पाया जाता हो वे कुगुरु हैं ।।१३४ ।। (२८) जो-जो लोक में गुरु दीखते हैं अथवा गुरु कहलाते हैं वे-वे शास्त्र के द्वारा परीक्षा करके ही पूजने योग्य हैं। शास्त्रोक्त गुण जिनमें नहीं दिखाई दें उनको नहीं पूजना ।।१३९ ।। (२९) हमारे तो ये ही गुरु हैं, हमें गुण-दोष विचारने से क्या प्रयोजन-ऐसा पक्षपात त्यागकर शास्त्र में गुरु के जैसे गुण-दोष कहे हैं वैसे विचार कर लोकमूढ़ता त्याग के गुरु को मानना योग्य है।।१४० ।। (३०) परिग्रहधारी कुगुरु के निमित्त से बुद्धिमानों की भी बुद्धि चलायमान हो जाती है। लोक में उनके द्वारा उत्पन्न किये हुए गहलभाव से निपुण पुरुष ही शुद्ध धर्म से चलित हो जाते हैं अतः उनका निमित्त मिलाना योग्य नहीं है।।१४१।। (३१) जिनके वचनों में जिनमन्दिर, श्रावक और पंचायती द्रव्य आदि में भेद वर्तता है वे युगप्रधान गुरु नहीं हैं अर्थात् कई चैत्यवासी पीताम्बर एवं रक्ताम्बर आदि कहते हैं कि 'यह तो हमारा मन्दिर, हमारे श्रावक और हमारा द्रव्य है तथा ये चैत्यालय आदि हमारे नहीं है-इस प्रकार का भेद मानने वाले गुरु नहीं हैं ।।१५२ ।। 35
SR No.009487
Book TitleUpdesh Siddhant Ratanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Bhandari, Bhagchand Chhajed
PublisherSwadhyaya Premi Sabha Dariyaganj
Publication Year2006
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size540 MB
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