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________________ दुश्चारित्र है, वे जीव बड़े अभागे हैं । । १४४ ।। (१९) जैनियों की रीति अलौकिक है, लोक से उल्टी है। जैनी वीतराग को देव मानते हैं, लोग सरागी को देव मानते हैं सो यदि कोई लौकिक सरागी देवों के पूजनादि की प्रवृत्ति करता है तो वह जैनी नहीं है - ऐसा तात्पर्य जानना । । १४५ । । (२०) जो बात निश्चय से अज्ञानी लोग मानते हैं उसे तो सारे लोग मानते ही हैं परन्तु जिस बात को जिनेन्द्रदेव मानते हैं उसे कोई विरले जीव ही मानते हैं अर्थात् अज्ञानी जीवों को धन-धान्यादि उत्कृष्ट भासित होते हैं सो तो सारे मोही जीवों को स्वयमेव उत्कृष्ट भासते ही हैं परन्तु जिनदेव वीतराग भाव को उत्कृष्ट मानते हैं सो यह मानने वाले बहुत थोड़े हैं क्योंकि जिन जीवों का निकट संसार है और मोह मंद हो गया है उन ही को वीतरागता रुचती है । । १४६ । । (२१) यदि तुम लोकाचार से बहिर्भूत जिनराज को जानते हो तो उन जिनेन्द्र को मानते हुए तुम लोकाचार को कैसे मानते हो ! । ।१४८ । । (२२) जो जीव जिनेन्द्र भगवान को मानकर भी अन्य देवों को प्रणाम करते हैं उन मिथ्यात्व सन्निपात से ग्रस्त जीवों का कौन वैद्य है ! । ।१४९ ।। (२३) परमभाव से प्रभु के चरणों को नमस्कार करके एक ही प्रार्थना है कि उनके वचन रूपी रत्नों को ग्रहण करने का मुझे सदा अति लोभ हो । । १५७ ।। (२४) हे प्रभो ! मुझ पर ऐसा स्वामिपना करो कि जिससे मुझे सामग्री का सुयोग प्राप्त होकर मेरा मनुष्यपना सफल हो जाये । । १६० । । (२५) रागादि दोष जिनमें पाये जाते हैं वे कुदेव हैं, उनका त्याग करके वीतराग देव को हृदय में स्थापित करना चाहिये | | अन्तिम सवैया । । (२६) सन्तजनों को चिन्तित पदार्थ को देने वाले श्री अरहंत देव मंगल हैं और सकल ज्ञेयाकृतियों के ज्ञायक श्री सिद्ध भगवन्तों का समूह भी मंगल है । । अन्तिम छप्पय १ ।। 25
SR No.009487
Book TitleUpdesh Siddhant Ratanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Bhandari, Bhagchand Chhajed
PublisherSwadhyaya Premi Sabha Dariyaganj
Publication Year2006
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size540 MB
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