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________________ उपदेश सिद्धान्त की रत्नमाला नेमिचंद भंडारी कृत श्री नेमिचंद जी भव्य जीव MPA अर्थः- इस लोक में बंधन और मरण के भय आदि का दुःख । तीव्र दुःख नहीं है, दुखों में दुःख का निधान तो जिनप्रभु के वचनों की आसादना अर्थात् विराधना करना है।। भावार्थ:- बंधनादि तो वर्तमान ही में दुःखदायी हैं पर भगवान की वाणी का लोपना अनंत भव में दुःखदायी है इसलिये जिनाज्ञा भंग करना महा दुःखदायी जानना । ।१५४ ।। __ आत्मज्ञान बिना सुश्रावकपना नहीं पहुवयण-विहि-रहस्सं, णाऊण वि जाव ण दीसइ अप्पा। ता कह सुसावगत्तं, जं चिण्णं धीरपुरुसेहिं।।१५५ ।। अर्थः- जिनवचनों के विधान का रहस्य जानकर भी जब तक आत्मा को नहीं देखा जाता तब तक सुश्रावकपना कैसे होगा? श्रावकपना तो आत्मज्ञानपूर्वक धीर पुरुषों द्वारा आचरण किया जाता है।। भावार्थः- प्रथम जिनवाणी के अनुसार आत्मज्ञानी होकर पश्चात् श्रावक के वा मुनि के व्रत धारण करे-ऐसी रीति है इसलिए जिसे आत्मा का ज्ञान नहीं उसके सच्चा श्रावकपना भी नहीं होता-ऐसा जानना ।।१५५।। जिनाज्ञा प्रमाण धर्म धारण करने का मनोरथ जह वि हु उत्तम सावय, पयडीए चडण करण असमत्थो। तह वि पहुवयण करणे, मणोरहो मज्झ हिययम्मि।।१५६।।
SR No.009487
Book TitleUpdesh Siddhant Ratanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Bhandari, Bhagchand Chhajed
PublisherSwadhyaya Premi Sabha Dariyaganj
Publication Year2006
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size540 MB
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