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________________ श्री नेमिचंद जी उपदेश सिद्धान्त रत्नमाला नेमिचंद भंडारी कृत सुमार्गरत पुरुषों का मिलाप दुर्लभ है सव्वं पि जए सुलहं, सुवण्ण-रयणाइं वत्थु-वित्थारं । णिच्चं चिअ मेलावं, सुमग्ग- णिरयाण अइ-दुलहं । । १४३ । । अर्थः- जगत में स्वर्ण-रत्न आदि वस्तुओं का विस्तार तो सब ही सुलभ है परन्तु जो सुमार्ग में रत हैं अर्थात् जिनमार्ग में यथार्थतया प्रवर्तते हैं उनका मिलाप निश्चय से नित्य ही अत्यन्त दुर्लभ है । ।१४३ ।। देव - गुरु की पूजा से मानपोषण दुश्चरित्र है अहिमाण-विस-समत्थं, यं च थुव्वंति देव गुरुणोयं । तेहिं पि जइ माणो, हा ! हा ! तं पुव्व - दुच्चरियं । । १४४ । । अर्थः- अभिमान रूपी विष को उपशमाने के लिये अरिहन्त देव अथवा निर्ग्रन्थ गुरुओं का स्तवन किया जाता है अर्थात् उनके गुण गाये जाते हैं परन्तु हाय ! हाय !! उससे भी कोई मान पोषण करे तो यह उसके पूर्व पाप का ही उदय है, दुश्चरित्र है || भावार्थ:- अरिहन्तादि वीतराग हैं उनकी पूजा, भक्ति एवं स्तुति आदि से मानादि कषायों की हीनता होती है परन्तु जो कोई जीव उनसे भी उल्टे अपनी मानादि कषायों को पुष्ट करे कि 'हम बड़े भक्त हैं, बड़े ज्ञानी हैं और हमारा बड़ा चैत्यालय है आदि' तो वे बड़े अभागे हैं । ।१४४ । । ८४ भव्य जीव
SR No.009487
Book TitleUpdesh Siddhant Ratanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Bhandari, Bhagchand Chhajed
PublisherSwadhyaya Premi Sabha Dariyaganj
Publication Year2006
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size540 MB
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