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________________ उपदेश सिद्धान्त की रत्नमाला श्रा नेमिचंद भंडारी कृत भव्य जीव अर्थः- इस कारण एक युगप्रधान जो आचार्य है उसका । दजी मध्यस्थ मन से पक्षपात रहित होकर व शास्त्र दृष्टि से लोक प्रवाह तजकर भली प्रकार परीक्षा करके निश्चय करना चाहिए || PM भावार्थ:- 'हमारे तो परम्परा से ये ही गुरु हैं इनके गुण-दोष के विचार करने का हमें क्या काम है'-इस प्रकार का पक्षपात व हठ छोड़कर जिस प्रकार शास्त्रों में गुरु के गुण-दोष कहे गये हैं उस प्रकार विचार करने चाहिएं और लोकमूढ़ता को छोड़कर गुरु को मानना चाहिये ।।१४०।। अज्ञानी गुरु के संग से ज्ञानी भी चलायमान संपइ दूसम समये, णामायरिएहिं जणिय जण मोहा। सुद्ध धम्माउ णिउणा, चलंति बहुजण-पवाहाओ।।१४१।। अर्थः- आज इस दुःखमा पंचम काल में जो नामाचार्य हैं अर्थात् आचार्य के गुणों से रहित होकर भी आचार्य कहलाते हैं उन्होंने लोक में ऐसा गहल भाव फैला दिया है जिससे निपुण पुरुष ही शुद्ध धर्म से चलायमान हो जाते हैं तो फिर भोले जीव क्यों नहीं चलायमान होंगे अर्थात् होंगे ही होंगे। कैसा है वह गहल भाव? मूर्ख जीवों द्वारा चलाया हुआ बहुत जनों के प्रवाह रूप है जिसे अनेक ज्ञानी जीव भी मानने लगते हैं।। १. टि०-सागर प्रति में इस गाथा का अर्थ इस प्रकार है:अर्थ:- इसलिये माध्यस्थ्य भाव से स्वसमय में स्थिति के लिये भेड़चाल को छोड़कर एवं पक्षपात रहित होकर शास्त्रानुसार अच्छी तरह से परीक्षा द्वारा निश्चय करके किसी युगप्रधान आचार्य को गुरु मानना चाहिये। ८२
SR No.009487
Book TitleUpdesh Siddhant Ratanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Bhandari, Bhagchand Chhajed
PublisherSwadhyaya Premi Sabha Dariyaganj
Publication Year2006
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size540 MB
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