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________________ उपदेश सिद्धान्त की रत्नमाला नेमिचंद भंडारी कृत ___ अर्थः- जिन जीवों के अपना आत्मा ही वैरी है अर्थात् घ र पात्री नेमिचंद जी / जो मिथ्यात्व और कषायों द्वारा अपना घात स्वयं ही करते हैं भव्य जीता उन्हें अन्य जीवों पर करुणा कैसे हो सकती है अर्थात् नहीं हो सकती। जिन (CET जो स्वयं घोर बंदीखाने में पड़ा हो वह दूसरों को छुड़ाकर कैसे सुखी कर सकता है अर्थात् नहीं कर सकता ।।११८ || पापयुक्त व्यापारों के त्यागी धन्य हैं जे रज्ज धणाईणं, कारणभूया हवंति वावारा। ते वि हु अइ पावजुआ, धण्णा छंडति भवभीया।।११६ ।। __ अर्थ:- जो राज्य और धनादि के कारणभूत व्यापार हैं वे समस्त निश्चय से अत्यंत पापयुक्त हैं सो जो जीव संसार से भयभीत होकर इन व्यापारों का त्याग करते हैं वे धन्य हैं ।। भावार्थ:- कितने ही जीव धनादि का अधिक संचय करके अपने को बड़ा मानते हैं सो ऐसा जिनमत में तो नहीं है। जिनमत में तो धनादि के त्याग की ही महिमा है-ऐसा जानना ।।११६ ।। मोही-लोभी के ही व्यापार में पाप का सेवन वीयादि सत्तरहिआ, धण-सयणादीहिं मोहिया लुद्धा। सेवंति पावकम्म, वावारे उयर भरणट्ठा।।१२०।। अर्थ:- जो जीव बल-वीर्य आदि शक्ति से रहित हैं, धन तथा पुत्रादि स्वजनों में मोहित हैं और लोभी हैं वे ही पेट भरने के लिये व्यापार में पापकर्म का सेवन करते हैं।। aman5808080P
SR No.009487
Book TitleUpdesh Siddhant Ratanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Bhandari, Bhagchand Chhajed
PublisherSwadhyaya Premi Sabha Dariyaganj
Publication Year2006
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size540 MB
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