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________________ श्री नेमिचंद जी उपदेश सिद्धान्त रत्नमाला नेमिचंद भंडारी कृत पाप को धर्म कहकर सेवन मत करो इक्कं पि महादुक्खं, जिणवयण विऊण सुद्ध हिययाणं । जं मूढा पावायं, धम्मं भणिऊण सेवंति । ।११४।। अर्थः- शुद्ध है चित्त जिनका ऐसे जिनवचन के ज्ञाताओं को एक ही महान दुःख है कि मूर्ख लोग धर्म का नाम लेकर पाप का सेवन करते हैं ।। भावार्थ:- कितने ही जीव व्रतादि का नाम करके रात्रिभोजनादि करते हैं अथवा तेरह प्रकार का चारित्र नाममात्र धारण करके अपने को गुरु मनवाकर पश्चात् विषय- कषाय सेवन में लग जाते हैं तथा धर्म के नाम पर हिंसादि पाँचों पापों में लवलीन हो जाते हैं- ऐसे जीवों की मूर्खता देखकर ज्ञानियों को करुणा उत्पन्न होती है । । ११४ ।। जिनवचन में रमने वाले विरल हैं थोवा महाणुभावा, जे जिणवयणे रमंति संविग्गा । तत्तो भव-भय-भीया, सम्मं सत्तीइ पालंति । ।११५ । । अर्थ:- ऐसे महानुभाव पुरुष बहुत थोड़े हैं जो वैराग्य में तत्पर होकर जिनवचनों के रहस्य में रमते हैं और उन जिनवचनों के ज्ञान से संसार से भयभीत होते हुए सम्यक्त्व का शक्तिपूर्वक पालन करते हैं ।। भावार्थ:- अनेक खोटे कारण मिलने पर भी जो अच्छी तरह से सम्यक् विचार रूप शक्ति प्रगट करके सत्यार्थ श्रद्धान से चलायमान नहीं होते ऐसे जीवों की बहुत दुर्लभता है । ।११५ ।। ६८ भव्य जीव
SR No.009487
Book TitleUpdesh Siddhant Ratanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Bhandari, Bhagchand Chhajed
PublisherSwadhyaya Premi Sabha Dariyaganj
Publication Year2006
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size540 MB
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