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________________ उपदेश सिद्धान्त की रत्नमाला नेमिचंद भंडारी कृत श्री नेमिचंद जी भव्य जीव सम्यग्दृष्टि को धन से भी सार जिनपूजा है जिणपूयण उच्छावे, जइ कुवि सद्दाण देइ धनकोडी। __ मुत्तूण तं असारं, सारं थिरयंति जिणपूयं ।।८६|| अर्थः- श्रद्धावान् जीवों को जिनराज की पूजा के समय में यदि कोई करोड़ों का धन दे तो भी वे उस असार धन को छोड़कर स्थिर चित्त से सारभूत जिनराज की पूजा ही करते हैं ।। भावार्थ:- सम्यग्दृष्टि को अवश्य ज्ञान-वैराग्य होता है इसलिये वीतरागी की पूजा आदि में उसे परम रुचि बढ़ती है। धर्मकार्य के समय में यदि कोई व्यापारादि का कार्य आ जाये तो वह उसे द:खदायी ही समझता है और धर्मकार्य को छोड़कर पापकार्य में नहीं लगता है यह ही सम्यग्दृष्टि का चिन्ह है और जिसे धर्मकार्य तो रुचता नहीं है जिस-तिस प्रकार उसे पूरा करना चाहता है तथा व्यापारादि को रुचिपूर्वक करता है सो यह ही मिथ्यादृष्टि का चिन्ह है-ऐसा जानना ।। ८६।। जिनपूजन और कुदेवपूजन की तुलना । तित्थयराणं पूया, सम्मत्त-गुणाण-कारणं भणिया। सोवि य मिच्छत्तयरी, जिणसमये देसियापूयं ।। ६०।। अर्थ:- तीर्थंकर देवों की पूजा तो सम्यक्त्व के गुणों की कारण है और सो ही रागी-द्वेषी अपूज्य कुदेवों की पूजा मिथ्यात्व को करने || वाली जिनमत में कही है।। म ५३
SR No.009487
Book TitleUpdesh Siddhant Ratanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Bhandari, Bhagchand Chhajed
PublisherSwadhyaya Premi Sabha Dariyaganj
Publication Year2006
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size540 MB
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