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________________ श्री नेमिचंद जी उपदेश सिद्धान्त रत्नमाला नेमिचंद भंडारी कृत अर्थ :- हे जीव ! तू अज्ञानी मिथ्यादृष्टियों के दोषों का क्या निश्चय करता है, वे तो मिथ्यादृष्टि हैं हीं, तू अपने ) को ही क्यों नहीं जानता ? यदि तुझे निश्चल सम्यक्त्व नहीं हुआ है तो तू भी तो दोषी ही है इसलिये जिनवाणी के अनुसार श्रद्धान दृढ़ करना - यह तात्पर्य है ।। ७० ।। शुद्ध जिनधर्म चाहिये तो मिथ्या आचरण छोड़ मिच्छत्तमायरंत वि, जे इह वंछंति सुद्ध जिणधम्मं । धत्ता वि जरेण य, भुत्तुं इच्छंति खीराइं । । ७१ । । अर्थः- जो जीव मिथ्यात्व का आचरण करते हुए भी शुद्ध जिनधर्म की इच्छा करते हैं वे ज्वरग्रस्त होते हुए भी खीर आदि खाने की इच्छा करते हैं ।। भावार्थः- कोई-कोई जीव कुदेव सेवन आदि मिथ्या आचरण को तो छोड़ते नहीं हैं और कहते हैं कि 'यह तो व्यवहार मात्र है, श्रद्धान तो हमें जिनमत का ही है।' उनको आचार्य देव कहते हैं कि 'हे भाई ! जब तक रागी - द्वेषी देवों की सेवा तुम्हारे है तब तक तो तुम्हें सम्यक्त्व का एक अंश भी होना असंभव है इसलिये मिथ्या देवादि का प्रसंग तो दूर ही से छोड़ देना और तब ही सम्यक्त्व की कोई बात करना - ऐसा ही अनुक्रम है' ।। ७१ ।। ४२ भव्य जीव
SR No.009487
Book TitleUpdesh Siddhant Ratanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Bhandari, Bhagchand Chhajed
PublisherSwadhyaya Premi Sabha Dariyaganj
Publication Year2006
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size540 MB
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