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________________ श्री नवकार महामंत्र - कल्प “योगविंशिका " में श्रीमान् हरिभद्रपरिजी महाराजने प्रतिपादित किया है, और न्याय विशारद्द न्यायाचार्य श्री यशोविजयजी महाराजने “योगविंशिका" की टीकामें टीका इस विषयको स्पष्ट करते हुवे फरमाया है कि, पांच आशय रहित जो धर्मक्रियायें होती हैं वह असार हैं, क्योंकि धार्मिक क्रियायें योगरुप होनेके कारण (१) प्रणिधान, (२) प्रवृत्ति, (३) विघ्नजय, (४) सिद्धि, और (५) विनियोग इन पांच आशयसे अलंकृत होना चाहिए, और ऐसे परिशुद्ध योगके पांच प्रकार बताए गए हैं । (१) उर्ण, (२) वर्ण, (३) अर्थ, (४) आलम्बन, और ( ५ ) अनालम्बन इस प्रकार पांच भेद हैं, इन भेदों में से उर्ण और वर्ण यह दोनों तो कर्म याग हैं, और अर्थ, आलम्बन, अनालम्बन यह तीनों ज्ञानयोग है। इन स्थानादि पञ्चयोगोंका तात्त्विक दृष्टिसे विचार किया जाय तो प्रत्येकके (१) इच्छा, (२) प्रवृत्ति, (३) स्थिरता, और (४) सिद्धि इस प्रकार चार चार भेद होते हैं, और इनके चार चार अवा तर भेद बताये हैं (१) प्रीति अनुष्ठान, (२) भक्ति अनुष्ठान, (३) वचन अनुष्ठान, और (४) असंग अनुष्ठान इस तरह के चार १८
SR No.009486
Book TitleNavkar Mahamantra Kalp
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmal Nagori
PublisherChandanmal Nagori
Publication Year1942
Total Pages120
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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