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________________ 業業業業業業業業業業業業業 आचार्य कुन्दकुन्द ● अष्ट पाहुड़ भावार्थ जिन सिद्धान्त में ऐसा कहा है कि 'तीसरी नरक पथ्वी से निकलकर तीर्थंकर हो सकता है सो यह भी शील ही का माहात्म्य है। सो सम्यक्त्व सहित हो विषयों से स्वामी विरचित विरक्त होकर यदि भली भावना भावे तब नरक की वेदना भी अल्प हो और वहाँ से निकल अरहंत पद पाकर मोक्ष पावे- ऐसा विषयों से विरक्त भाव सो ही शील का माहात्म्य जानो। सिद्धान्त में ऐसा कहा है कि सम्यग्द ष्टि के ज्ञान और वैराग्य है - ऐसा जानना' । ।३२ ।। की शक्ति नियम से होती है सो जो यह वैराग्य शक्ति है वह ही शील का एकदेश उत्थानिका आगे इस कथन का संकोच करते हैं : एवं बहुप्पयारं जिणेहिं पच्चक्खणाणदरसीहिं । सीलेण य मोक्खपयं अक्खातीदं च लोयणाणेहिं । । ३३ । । प्रत्यक्ष दर्शनज्ञानधर लोकज्ञ, जिन इस भाँति ही । अत्यक्ष शिवपद शील से ही, कहा बहुत प्रकार से । । ३३ ।। अर्थ 'एवं' अर्थात् पूर्वोक्त प्रकार तथा अन्य भी बहुत प्रकार जिनदेव ने कहा है कि शील से मोक्ष पद होता है । कैसा है मोक्षपद - अक्षातीत है अर्थात् इन्द्रियों से रहित अतीन्द्रिय ज्ञान व सुख जिसमें पाया जाता है तथा ऐसा कहने वाले जिनदेव कैसे हैं-प्रत्यक्ष ज्ञान-दर्शन जिनके पाया जाता है तथा लोक का जिनके ज्ञान है। जानो ।। ३३ ।। भावार्थ सर्वज्ञ देव ने ऐसा कहा है कि 'शील से अतीन्द्रिय ज्ञान व सुख रूप मोक्षपद पाया जाता है सो भव्य जीव इस शील को अंगीकार करो' - ऐसा उपदेश का आशय सूचित होता है। बहुत कहाँ तक कहें, इतना ही बहुत प्रकार से कहा ८-३४ 【卐卐 卐糕糕糕糕業業卐業卐業卐業卐業卐 專業版
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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