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________________ अष्ट पाहुड़। पाहुड़MMEC स्वामी विरचित ENTante o आचार्य कुन्दकुन्द SARAMANAND HDooja Dee/ TOMJANA WANAMANAS Do/ में सुख जाना। जैसे कुत्ता सूखी हड्डी चबाता है तो हड्डी की नोंक मुख के तालवे में चुभती है, तब तालवा फटकर उसमें से रुधिर स्रवता है तब अज्ञानी श्वान जानता है कि यह रस हड्डी में से निकला है तब उस हड्डी को वह बार-बार चबाकर सुख मानता है वैसे ही अज्ञानी विषयों में सुख जानकर उन्हें बार-बार भोगता है परन्तु ज्ञानियों ने तो अपने ज्ञान ही में सुख जाना है, उन्हें विषयों को छोड़ने में खेद नहीं है-ऐसा जानना।।२४।। उत्थानिका (923 戀戀养养%崇崇明藥崇崇崇泰拳事業事業事業事業事業事業助兼第 आगे कहते हैं कि 'यदि यह प्राणी शरीर के सब अवयव सुन्दर पावे तो भी सब अंगों में शील है सो ही उत्तम है' :वट्टेसु य खंडेसु य भद्देसु य विसालेसु अंगेसु। अंगेसु य पप्पेसु य सव्वेसु य उत्तमं सीलं ।। २५।। कई गोल कई गोलार्द्ध तन के, अंग सरल विशाल कई। सब हों यथावस्थित मगर, है शील उत्तम सर्व में ।।२५ ।। अर्थ प्राणी की देह में कई अंग तो 'व त्त' अर्थात् गोल, सुघट सराहने योग्य होते हैं; कई अंग 'खंड' अर्थात् अर्द्ध गोल सद श सराहने योग्य होते हैं; कई अंग 'भद्र' अर्थात् सरल-सीधे प्रशंसा योग्य होते हैं और कई अंग 'विशाल' अर्थात् विस्तीर्ण-चौड़े प्रशंसा योग्य होते हैं इस प्रकार सब ही अंग यथास्थान सुन्दरता पाते हुए भी सब अंगों में यह शील नाम का अंग है सो उत्तम है, यह न हो तो सब ही अंग शोभा नहीं पाते-यह प्रसिद्ध है। भावार्थ लोक में प्राणी सर्वांग सुन्दर हो परन्तु दुःशील हो तो सर्व लोक के द्वारा निन्दा करने योग्य होता है-इस प्रकार लोक में भी शील ही की शोभा है तो मोक्षमार्ग 崇崇崇崇崇崇崇崇崇崇勇攀樂事業事業蒸蒸男崇勇樂 崇崇崇明崇崇明崇明崇勇兼業助業崇勇崇勇崇明
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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