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________________ अष्ट पाहड स्वामी विरचित 9A आचाय कुन्दकुन्द Doo|2 mool 10. किं काहदि बहिकम्मं किं काहदि बहुविहं च खवणं च। किं काहदि आदावं आदसहावस्स विवरीदो।। 99।। क्या करे बाहिरी कर्म व उपवास बहुविध क्या करे। अरु क्या करे आतापना. विपरीत आत्मस्वभाव जो। 199 ।। 添添添添添添樂業%崇崇崇崇勇涉兼崇勇攀事業事業 अर्थ आत्मस्वभाव से विपरीत-प्रतिकुल १.बाह्यकर्म जो क्रियाकांड वह क्या करेगा, मोक्ष का कुछ कार्य तो किचिन्मात्र भी नहीं करेगा, २. अनेक प्रकार का जो बहुत क्षपण अर्थात उपवासादि बाह्य तप वह भी क्या करेगा, कुछ भी नहीं करेगा और ३. आतापनयोग आदि जो कायक्लेश वह क्या करेगा, कुछ भी नहीं करेगा। भावार्थ बाह्य क्रियाकर्म शरीराश्रित है और शरीर जड़ है, आत्मा चेतन है सो जड़ की क्रिया तो चेतन को कुछ फल करती है नहीं, चेतन का जैसा भाव क्रिया में जितना मिलता है उसका फल चेतन को लगता है। चेतन का यदि अशुभ उपयोग मिले तब तो अशुभ कर्म बँधते हैं, शुभ उपयोग मिले तब शुभकर्म बँधते हैं और जब शुभ व अशुभ-दोनों से रहित उपयोग होता है तब उससे कर्म नहीं बँधते है, वे तो जो पहिले कर्म बँधे हुए हो उनकी निर्जरा करके मोक्ष करता है। इस प्रकार चेतन का उपयोग के अनुसार फल है, इसलिये ऐसा कहा है कि 'बाह्य क्रियाकर्म से तो कुछ मोक्ष होता है नहीं, शुद्ध उपयोग होने पर मोक्ष होता है। इसलिये दर्शन-ज्ञान उपयोग का विकार मेटकर शुद्ध ज्ञान चेतना के अनुभव का अभ्यास करना-मोक्ष का यह उपाय है' |199|| 柴柴先崇崇先帶禁藥業業先崇崇勇崇勇兼業助兼業助業%崇明 आगे इसी अर्थं का फिर विशेष कहते हैं :जइ पढइ बहुसुयाणं जइ काहदि बहुविहं च चारित्तं । तं बालसुयं चरणं हवेइ अप्पस्स विवरीयं ।। १००।। 崇崇崇明崇崇寨 ,屬崇崇崇崇明崇暴%
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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