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________________ 業業業業業業業業出版業 आचार्य कुन्दकुन्द * अष्ट पाहुड़ स्वामी विरचित नर कोई निज को जान, आतम भावना से भ्रष्ट हो । हो विषयविमोहित मूढ़ वह, भ्रमे चतुर्गति संसार में ।। ६७ ।। अर्थ कई अज्ञानी - मूर्ख मनुष्य आत्मा को जानकर भी अपने स्वभाव की भावना से अत्यंत भ्रष्ट हुए विषयों में विमोहित होकर चार गति रूप संसार में भ्रमण करते हैं । भावार्थ पहिले कहा था कि 'आत्मा को जानना, उसकी भावना भाना और विषयों से विरक्त होना-ये उत्तरोत्तर दुर्लभता से पाये जाते हैं।' वहाँ विषयों में लगा हुआ जीव प्रथम तो आत्मा को जानता नहीं - ऐसा कहा था, अब इस प्रकार कहा है कि 'आत्मा को जानकर भी विषयों के वशीभूत हुआ यदि उसकी भावना नहीं करता तो संसार ही में भ्रमण करता है' इसलिये आत्मा को जानकर विषयों से विरक्त होना-यह उपदेश है । । ६७ ।। उत्थानिका आगे कहते हैं कि 'जो विषयों से विरक्त होकर आत्मा को जानकर उसे भाते हैं वे संसार को छोड़ते हैं : जे पुण विसयविरत्ता अप्पा णाऊण भावणासहिया । छंडंति चाउरंग तवगुणजुत्ता ण संदेहो ।। ६8।। युत तप व गुण से युक्त हो, इस बात में संदेह ना । होकर विषय से विरत आतम जान भावना सहित हो ।। ६8 ।। अर्थ 'पुनः' अर्थात् फिर जो पुरुष-मुनि विषयों से विरक्त होकर आत्मा को जानकर उसे भाते हैं, बारम्बार भावना के द्वारा उसका अनुभव करते हैं वे 'तप गुण' अर्थात् ६-६० बारह प्रकार के तप और मूलगुण व उत्तरगुणों से युक्त हुए संसार को छोड़ते हैं, मोक्ष पाते हैं । 卐卐卐 *縢縢糕糕糕糕糕糕糕 纛業 卐糕糕卐
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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