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________________ 卐卐糕糕卐業業業卐業業業 आचार्य कुन्दकुन्द * अष्ट पाहुड़ स्वामी विरचित चेतनता उत्पन हुई मानता है वहाँ भूत तो जड़ है उसमें चेतनता कैसे उपजे इत्यादि अन्य भी कोई मानते हैं वे सारे अज्ञानी हैं अतः जो चेतन में ही चेतना मानता है वह ज्ञानी है - यह जिनमत है । । ५8 ।। उत्थानिका आगे कहते हैं कि 'तप रहित तो ज्ञान और ज्ञान रहित तप- ये दोनों ही अकार्य हैं, दोनों के संयुक्त होने पर ही निर्वाण है' : तवरहियं जं णाणं णाणविजुत्तो तओ वि अकयत्थो । तम्हा णाणतवेण संजुत्तो लहइ णिव्वाणं ।। ५१ । । तप से विहीन जो ज्ञान, ज्ञानवियुक्त तप अकृतार्थ है। अतएव ज्ञान व तप से युक्त ही, पाता है निर्वाण को । । ५१ ।। अर्थ ज्ञान यदि तप रहित है तथा जो तप है सो ज्ञान रहित है तो दोनों ही अकार्य हैं अतः ज्ञान और तप से जो संयुक्त है वह निर्वाण को पाता है । भावार्थ अन्यमती सांख्यादि कोई ज्ञान चर्चा तो बहुत करते हैं और कहते हैं कि ज्ञान ही से मुक्ति है और तप करते नहीं, विषय-कषायादि को प्रधान का धर्म मानकर स्वच्छन्द प्रवर्तते हैं। कई ज्ञान को निष्फल मानकर उसको यथार्थ जानते नहीं और तप-क्लेशादि ही से सिद्धि मानकर उसके करने में तत्पर रहते हैं । आचार्य कहते हैं कि ये दोनों ही अज्ञानी हैं, जो ज्ञान सहित तप करते हैं वे ही मोक्ष पाते हैं- यह अनेकान्त स्वरूप जिनमत का उपदेश है ।। ५६ ।। उत्थानिका आगे इसी अर्थ को उदाहरण से दढ़ करते हैं : ६-५४ 卐卐卐] 蛋糕糕糕糕糕糕卐 卐糕糕卐
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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