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________________ अष्ट पाहुड़strata स्वामी विरचित आचार्य कुन्दकुन्द ADOG/R Blood Dool 500 (60 添添添添添添樂業%崇崇崇崇勇涉兼崇勇攀事業事業 आगे उस परमात्मा का विशेषणों के द्वारा स्वरूप कहते हैं :मलरहिओ कलचत्तो अणिंदिओ केवलो विसुद्धप्पा। परमेट्ठी परमजिणो सिवंकरो सासओ सिद्धो'।। ६ ।। है विशुद्वात्मा मलरहित, कल त्यक्त, अनिन्द्रिय, सिद्ध वह । परमेष्ठी केवल, परम जिन, अरु है शिवंकर शाश्वता।। ६ ।। अर्थ परमात्मा ऐसा है-(१) प्रथम तो 'मलरहित' है-द्रव्यकर्म और भावकर्म रूप मल से रहित है, (२) 'कलत्यक्त' अर्थात् शरीर से रहित है, (३) 'अनिन्द्रिय' अर्थात् इन्द्रियों से रहित है अथवा अनिन्दित अर्थात् किसी भी प्रकार से निंदायुक्त नहीं है, सब ही प्रकार से प्रशंसा के योग्य है, (४) 'केवल' अर्थात् केवलज्ञानमयी है, (५) 'विशुद्धात्मा' अर्थात् विशेष रूप से शुद्ध है आत्मस्वरूप जिसका ज्ञान में ज्ञेय के आकार प्रतिभासित होते हैं तो भी उन स्वरूप नहीं होता तथा उनसे रागद्वेष नहीं है, (६) 'परमेष्ठी' है-परम पद में स्थित है, (७) 'परमजिन' है-सब कर्मों को जीत लिया है, (८) 'शिवंकर' है-भव्य जीवों के परम मंगल तथा मोक्ष को करता है, (६) 'शाश्वत' है-अविनाशी है तथा (१०) 'सिद्ध है-अपने स्वरूप की सिद्धि के द्वारा निर्वाण पद को प्राप्त है। भावार्थ परमात्मा उपरोक्त प्रकार का है। ऐसे परमात्मा का जो ध्यान करता है वह ऐसा ही हो जाता है।।६।। 柴柴先崇崇先帶禁藥業業先崇崇勇崇勇兼業助兼業助業%崇明 आगे भी यही उपदेश कहते हैं : टि0-1. इस गाथा में दिये गए कुछ विधीषणों के श्रु0 टी0 में जो विभिन्न अर्थ दिये गए हैं उन पर टिप्पण पाठकगण ढूंढारी टीका में इसी स्थल पर देखें।। 养業業業兼藥業、崇崇崇明崇崇明崇崇明
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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