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________________ 【業業業業業業業業業業業 आचार्य कुन्दकुन्द * अष्ट पाहड़ स्वामी विरचित है सो शुद्धात्मस्वरूप के ध्यान को सूचित करता है । वे पंच परमेष्ठी कैसे हैं-'मंगल' अर्थात् पाप का गालन अथवा सुख का देना और 'चउशरण' अर्थात अरिहंत, सिद्ध, साधु और केवली प्रणीत धर्म- ये चार शरण और 'लोक' अर्थात् लोक के प्राणी उनसे ‘परिकरित ́ अर्थात् परिवारित हैं- युक्त हैं तथा नर, सुर और विद्याधरों से महित हैं-पूज्य हैं इसी कारण लोकोत्तम कहे गए हैं। तथा आराधना के नायक हैं तथा वीर हैं-कर्मों के जीतने को सुभट हैं तथा विशिष्ट लक्ष्मी को प्राप्त हैं तथा उसे देते हैं- ऐसे पंच परम गुरु का ध्यान कर । भावार्थ यहाँ पंच परमेष्ठी का ध्यान करना कहा सो ध्यान में विघ्न का निवारण करने वाले चार मंगलस्वरूप कहे वे ये ही हैं तथा चार शरण और चार लोकोत्तम कहे हैं वे भी इन ही को कहे हैं, इनके सिवाय प्राणी को अन्य शरण-रक्षा करने वाला भी नहीं है और लोक में उत्तम भी ये ही हैं। तथा आराधना, दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप-ये चार हैं उनके नायक - स्वामी भी ये ही हैं, कर्मों को जीतने वाले भी ये ही हैं इसलिए ध्यान के कर्ता को इनका ध्यान श्रेष्ठ है, शुद्धस्वरूप की प्राप्ति इन ही के ध्यान से होती है, इसलिए यह उपदेश है । । १२४ ।। उत्थानिका आगे ध्यान है वह ज्ञान का एकाग्र होना है सो ज्ञान के अनुभव करने का उपदेश करते हैं : णाणमयविमलसीयलसलिलं पाऊण भविय भावेण । वाहिजरमरणवेयणडाहविमुक्का पी विमल शीतल ज्ञानमय, जल को भविकजन भाव से। सिवा होंति।। १२५ ।। जर-मरण-व्याधि वेदना की, दाह मुक्त हों शिवमयी । । १२५ ।। अर्थ भव्य जीव हैं वे ज्ञानमयी निर्मल, शीतल जल है उसको सम्यक्त्व भाव सहित ५-१२६ * 縢糕糕糕糕糕糕糕糕糕糕糕糝縢縢岠 卐業卐業專業
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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