SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 382
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अष्ट पाहुड़ rates स्वामी विरचित आचार्य कुन्दकुन्द Dod. Dec DOOT HARDOI उत्थानिका 崇%崇崇崇崇崇明藥業業助兼業助兼事業事業%崇崇勇崇勇崇 आगे कहते हैं कि 'यह ध्यान भावलिंगी मुनियों को मोक्ष प्राप्त कराता है' : जे केवि दव्वसवणा इंदियसुहआउला ण छिंदंति। छिंदंति भावसवणा झाणकुठारे हिं भवरुक्खं ।। १२२।। इन्द्रिय सुखाकुल द्रव्यमुनि, भव व क्ष को छेदं नहीं। छेदते भावमुनी ही उसको, ध्यान रूप कुठार से ।।१२२ । । अर्थ जो कोई द्रव्यलिंगी श्रमण हैं वे तो इन्द्रिय सुख में व्याकुल हैं, उनके यह धर्म-शुक्ल ध्यान होता नहीं, वे तो संसार रूपी व क्ष को काटने में समर्थ नहीं हैं तथा जो भावलिंगी श्रमण हैं वे ध्यान रूपी कुल्हाड़े से संसार रूपी वक्ष को काटते हैं। भावार्थ जिन मुनियों ने द्रव्यलिंग को धारण किया है परन्तु परमार्थ सुख का अनुभव जिनके नहीं हुआ इसलिए इसलोक तथा परलोक में जो इन्द्रियों के सुख ही को चाहते हैं और तपश्चरणादि भी इस ही अभिलाषा से करते हैं उनको धर्म-शुक्ल ध्यान कैसे होगा अर्थात् नहीं होगा तथा जिन्होंने परमार्थ सुख का आस्वाद लिया उनको इन्द्रिय सुख दुःख भासित हुआ इसलिए वे परमार्थ सुख का उपाय जो धर्म-शुक्ल ध्यान हैं उनको करके संसार का अभाव करते हैं सो भावलिंगी होकर ध्यान का अभ्यास करना ।।१२२ ।। उत्थानिका 先养养樂業禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁 आगे इस ही अर्थ को द ष्टान्त से दढ़ करते हैं :जह दीवो गब्भहरे मारुयवाहाविवज्जिओ जलइ। तह रायाणिलरहिओ झाणपईवो वि पज्जलइ।। १२३ ।। 崇明崇崇明崇明崇明崇勇戀戀戀戀兼業助兼崇明
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy