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________________ अष्ट पाहुए . sarata स्वामी विरचित आचार्य कुन्दकुन्द ADOO ADOG) HDooll DO Des/ 禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁 और उत्तर गुण स्वभाव एवं विभाव परिणति के भेद से भेद रूप करके कहे हैं। __ शील की तो दो प्रकार से प्ररूपणा है-एक तो स्वद्रव्य-परद्रव्य के विभाग की अपेक्षा है और दूसरी स्त्री के संसर्ग की अपेक्षा है। उनमें परद्रव्य का संसर्ग (१) मन, वचन, काय से होता है और क त, कारित, अनुमोदना से होता है सो न करना। इनको परस्पर गुणा करने पर नौ भेद होते हैं तथा (२) आहार, भय, मैथुन और परिग्रह-ये चार संज्ञा हैं, इनसे परद्रव्य का संसर्ग होता है सो न होना-इस प्रकार नौ भेदों को इन चार संज्ञाओं से गुणा करने पर छत्तीस होते हैं तथा (३) पाँच इन्द्रियों के निमित्त से विषयों का संसर्ग होता है, उनकी प्रव त्ति के अभाव रूप पाँच इन्द्रियों से छत्तीस को गुणा करने पर एक सौ अस्सी होते हैं तथा (४) पथ्वी, अप, तेज, वायु, प्रत्येक और साधारण-ये तो एकेन्द्रिय और द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चौइन्द्रिय और पंचेन्द्रिय ऐसे दस भेद रूप जो जीव उनका संसर्ग, इनकी हिंसादि रूप प्रवर्तने से परिणाम विभाव रूप होते हैं सो न करना, ऐसे एक सौ अस्सी भेदों को दस से गुणा करने पर अठारह सौ होते हैं तथा (५) क्रोधादि कषाय और असंयम परिणाम से परद्रव्य सम्बन्धी विभाव परिणाम होते हैं, उनके अभाव रूप दसलक्षण धर्म है, उससे गुणा करने पर अठारह हजार होते हैं। ऐसे परद्रव्य के संसर्ग रूप कुशील के अभाव रूप शील के अठारह हजार भेद हैं। इनके पलने से परम ब्रह्मचर्य होता है। 'ब्रह्म' अर्थात् आत्मा-उसमें प्रवर्तना, रमना उसको ब्रह्मचर्य कहते हैं। स्त्री के संसर्ग की अपेक्षा इस प्रकार है-स्त्री दो प्रकार की है, उनमें अचेतन स्त्री तो काष्ठ, पाषाण और 'लेप' अर्थात् चित्राम-इन तीन का मन और काय इन दो से संसर्ग होता है। यहाँ वचन नहीं है इसलिए दो से गुणा करने पर छह होते हैं। इनको क त, कारित, अनुमोदना से गुणा करने पर अठारह होते हैं, पाँच इन्द्रियों से गुणा करने पर नब्बे होते हैं, द्रव्य और भाव से गुणा करने पर एक सौ अस्सी होते हैं और क्रोध, मान, माया और लोभ-इन चार कषायों से गुणा करने पर सात सौ बीस होते हैं। तथा चेतन स्त्री देवी, मनुष्यनी और तिर्यंचनी ऐसे तीन, इन तीनों को मन, वचन और काय से गुणा करने पर नौ होते हैं। क त, कारित अनुमोदना से गुणा करने पर सत्ताईस होते हैं। इनको पाँच इन्द्रियों से गुणा करने पर एक सौ पैंतीस होते हैं। इनको द्रव्य और भाव-इन दो से गुणा करने पर दो सौ सत्तर होते हैं। इनको चार 5555-१२०-5*55555 先养养樂業禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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