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________________ 秦業業業業業業業業業 आचार्य कुन्दकुन्द * अष्ट पाहड़ स्वामी विरचित उत्थानिका आगे तत्त्व की भावना करने का उपदेश करते हैं - भावहि पढमं तच्चं विदियं तदियं चउत्थपंचमयं । तियरणसुद्धो अप्पं अणाइणिहणं तिवग्गहरं ।। ११४ ।। तू भाव प्रथम, द्वितिय, ततीय, चतुर्थ, पंचम तत्त्व अरु । आद्यंत रहित त्रिवर्गहर, आत्मा को त्रिकरण शुद्धि से । । ११४ । । अर्थ हे मुनि ! तू १. प्रथम तत्त्व जो जीवतत्त्व उसको भा तथा २. दूसरे तत्त्व अजीव नहीं हूँ ।' तत्व को भा तथा ३. तीसरे तत्त्व आस्रव तत्त्व को भा तथा ४. चौथे तत्त्व बंध को भा तथा ५. पाँचवां तत्त्व जो संवर तत्त्व उसको भा तथा त्रिकरण अर्थात् मन-वचन-काय और क त कारित - अनुमोदना से शुद्ध होते हुए आत्मा को भा । कैसा है आत्मा-अनदिनिधन है । और कैसा है-त्रिवर्ग अर्थात् धर्म, अर्थ और काम- इनका हरने वाला है। भावार्थ (१) प्रथम तो जीव तत्त्व की भावना सामान्य चेतना स्वरूप है' और पीछे 'ऐसा मैं हूँ' ऐसे आत्मतत्त्व की भावना करनी । करनी कि 'जीव दर्शनज्ञानमयी (२) दूसरा अजीव तत्त्व है सो सामान्य अचेतन जड़ है । वे पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल हैं इनका विचार करना और पीछे ऐसी भावना करनी कि 'वे मैं (३) तीसरा आस्रव तत्त्व है सो जीव- पुद्गल के संयोगजनित भाव हैं, उनमें जीव के भाव तो राग-द्वेष मोह हैं और अजीव पुद्गल के भाव कर्म के उदय रूप मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग-ये द्रव्य आस्रव हैं। इनकी भावना करनी कि 'ये मेरे लिये हेय हैं, मेरे ये जो राग-द्वेष-मोह भाव हैं उनसे कर्म का बंध होता है और उससे संसार होता है इसलिए उनका मुझे कर्ता नहीं होना । (४) चौथा बंध तत्त्व है जो मैं राग-द्वेष-मोह रूप परिणमता हूँ सो तो मेरी चेतना ५-११२ 卐卐卐 米糕蛋糕蛋糕卐渊渊渊渊渊業業專業生
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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