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________________ अष्ट पाहु rata स्वामी विरचित आचार्य कुन्दकुन्द GOOGO आच 188888 S/B0 ADDA उत्थानिका फिर कहते हैं :सचित्तभत्तपाणं गिद्धी दप्पेण धी पभुत्तूण। पत्तोसि तिव्वदुक्खं अणाइकालेण तं चिंत।। १०२।। किया सचित्त भोजन-पान, ग द्धि-दर्प से अज्ञानी तू। इसलिए पाए तीव्र दुःक्ख, अनादि से कर चिन्तवन ।।१०२ ।। अर्थ द्धि अज्ञानी होते हुए अति चाह करके तथा अति गर्व-उद्धतपने से सचित्त भोजन तथा पान, जीवों सहित आहारी-पानी लेकर अनादि काल से लगाकर तीव्र दुःख को पाया उसका चिन्तवन कर-विचार कर। भावार्थ मुनि को उपदेश करते हैं कि 'अनादि काल से लगाकर जब तक अज्ञानी रहा, जीव-अजीव का स्वरूप नहीं जाना तब तक सचित्त-जीवों सहित आहार-पानी करते हुए संसार में तीव्र नरकादि का दुःख पाया, अब मुनि होकर भाव शुद्ध कर और सचित्त आहार-पानी मत कर, नहीं तो फिर पूर्व समान दुःख भोगेगा' ।।१०२।। हे जीव ! त 添馬添馬添先崇禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁 先养养樂業禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁 फिर कहते हैं :कंदं बीयं मूलं पुप्फ पत्तादि किंचि सचित्तं । असिऊण माणगव्वे भमिओसि अणंतसंसारे।। १०३।। हैं कंद-मूल व बीज-पुष्प अरु पत्र आदि सचित्त जो। उन्हें खाके मान से, गर्व से, संसारानंत में तू भ्रमा ।।१०३ ।। 藥業業業藥業因業藥業業助兼業助兼業助
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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