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________________ अष्ट पाहुए . sarata स्वामी विरचित आचार्य कुन्दकुन्द DOO Dog HOOL Deolo Dod अर्थ पुनश्च हे मुने ! तू जिसे अरिहंत भगवान ने कहा और गणधर देवों ने गूंथा अर्थात् जिसकी शास्त्र रूप रचना की ऐसे श्रुतज्ञान की सम्यक् प्रकार भाव शुद्ध करके प्रतिदिन निरन्तर भावना कर। कैसा है वह श्रुतज्ञान-अतुल है अर्थात् जिसके बराबर अन्य मत का भाषा हुआ श्रुतज्ञान नहीं है।।१२।। उत्थानिका ऐसा किये क्या होता है सो कहते हैं :पीऊण णाणसलिलं णिम्महतिसडाहसोसउम्मुक्का। हुति सिवालयवासी तिहुवणचूडामणी सिद्धा।। 9३।। पी ज्ञानजल निर्मथ्य त ष्णा, दाह शोष से रहित हो। होते शिवालयवासी त्रिभुवन, चूड़ामणि वे सिद्ध प्रभु । 9३।। अर्थ पूर्वोक्त प्रकार भाव शुद्ध करने पर ज्ञान रूपी जल को पीकर सिद्ध हो जाते हैं। कैसे हैं वे सिद्ध–'निर्मथ' अर्थात् जिसे मथा न जाय ऐसी त षा-त ष्णा एवं दाह, शोष से रहित हैं; 'शिवालय' अर्थात मुक्ति रूपी महल के बसने वाले हैं तथा क्योंकि लोक के शिखर पर उनका वास है अतः तीन भुवन के चूड़ामणि अर्थात् मुकुटमणि हैं और तीन भुवन में जैसा सुख नहीं वैसे परमानंद अविनाशी सुख को भोगते हैं-इस प्रकार भी तीन भुवन के मुकुटमणि हैं। वे जो ऐसे सिद्ध होते हैं सो ज्ञान रूपी जल पीने का ही फल है। भावार्थ शुद्ध भाव करके ज्ञान रूपी जल पीने पर क्योंकि त ष्णा का दाह, शोष मिटता है इसलिए ऐसा कहा है कि उससे वे परमानंद रूप सिद्ध हो जाते हैं। 19३।। 營業养养崇明藥崇崇崇勇兼崇勇攀事業事業事業蒸蒸勇崇勇樂 आगे भावशुद्धि के लिए फिर उपदेश करते हैं :崇明崇崇明崇明崇明崇勇戀戀戀戀兼業助兼崇明
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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