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________________ 卐業卐業卐卐業業卐業業業業 आचार्य कुन्दकुन्द * अष्ट पाहड़ स्वामी विरचित भावार्थ जिसको जानने और श्रद्धान करने से मोक्ष होता हो उसी का जानना और श्रद्धान करना मोक्ष की प्राप्ति कराता है इसलिए आत्मा का ज्ञान व श्रद्धान तुम सब प्रकार के उद्यम से करना । इसी से मोक्ष की प्राप्ति होती है इसलिए भव्य जीवों को बार-बार यही उपदेश है ।। 8७ ।। उत्थानिका आगे कहते हैं कि 'बाह्य हिंसादि किये बिना ही मात्र अशुद्ध भाव से तंदुल मत्स्य जैसा तुच्छ जीव भी सातवें नरक गया तब अन्य बड़े जीव की क्या कथा' :मच्छो वि सालिसित्थो असुद्धभावो गओ महाणरयं । इय गाउं अप्पाणं भावय जिणभावणा णिच्चं ।। 88 ।। गया मत्स्य तंदुल नरक सातवें भाव अशुद्धस्वरूप हो । यह जान आतमज्ञान हित, जिन भावना भा नित्य ही । 188 ।। अर्थ हे भव्य जीव ! तू देख, 'सालिसित्थ' अर्थात् तंदुल नामक मत्स्य है सो भी अशुद्ध भावस्वरूप हुआ होता 'महानरक' अर्थात् सातवें नरक गया, इस कारण तुझे उपदेश देते हैं कि 'अपनी आत्मा को जानने को तू निरन्तर जिनभावना भा ।' भावार्थ गया तो अन्य बड़ा जीव नरक अशुद्ध भाव के माहात्म्य से तंदुल मत्स्य जैसा तुच्छ जीव भी सातवें नरक क्यों न जाय अर्थात् जाय ही जाय अतः भाव शुद्ध करने का उपदेश है। वे भाव शुद्ध अपने एवं पर के स्वरूप को जानने से होते हैं और अपने पर के स्वरूप का ज्ञान जिनदेव की आज्ञा की भावना निरन्तर भाने से होता है अतः जिन आज्ञा की भावना निरन्तर करनी योग्य है। तंदुल मत्स्य की कथा इस प्रकार है - काकंदीपुरी का जो राजा सूरसेन था वह माँसभक्षी हो गया। मांस का अत्यन्त लोलुपी वह निरन्तर उसके भक्षण का अभिप्राय रखता था। उसका 'पित प्रिय' नामक रसोइया था जो उसे अनेक जीवों 卐卐糕糕糕糕 ५-६१ 卐卐卐卐業業卐業業卐業業卐糕
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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