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________________ अष्ट पाहुstrata स्वामी विरचित आचार्य कुन्दकुन्द ह Dod. FDoo -Dec/s Deel DOO Ded ADDA उत्थानिका 添馬添馬添先崇先禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁 आगे फिर कहते हैं कि 'हे जीव ! तूने इस लोक में सारे पुद्गलों का भक्षण किया तो भी तप्त नहीं हुआ' :गसियाई पुग्गलाई भुवणोदरवत्तियाई सव्वाई। पत्तोसि तो ण तित्तिं पुणरुत्तं ताई भुजंतो।। २२।।। भोगे सकल पुद्गल जो वर्तते, लोक के ही उदर में। फिर-फिर उन्हीं को भोगते भी, त प्ति तो पाई नहीं।।२२।। अर्थ हे जीव ! तूने इस लोक के उदर में वर्तते जो पुद्गल स्कन्ध उन सबको ग्रास बनाया अर्थात् भक्षण किया तथा उनको पुनरुक्त अर्थात् बार-बार भोगता हुआ भी त प्ति को प्राप्त नहीं हुआ।।२२।। 先养养樂業禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁 फिर कहते हैं :तिहुवणसलिलं सयलं पीयं तण्हाइ पीडिएण तुम। तो वि ण तण्हाछेओ जायउ चिंतेह भवमहणं ।। २३।। तष्णा से पीड़ित हो पिया, त्रिभुवन के सारे नीर को। फिर भी ना त ष्णा छिदी अब, भव मथन का चिंतन तू कर ।।२३।। अर्थ हे जीव ! तूने इस लोक में त ष्णा से पीड़ित होकर तीन भुवन का समस्त जल पिया तो भी तेरी त ष्णा का विच्छेद नहीं हुआ इसलिए अब तू इस संसार का जैसे तेरे 'मथन' अर्थात् नाश हो वैसा चिन्तवन कर। 勇攀業業崇崇崇崇崇崇崇崇明崇明崇勇
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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