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________________ *糕糕糕糕糕糕糕糕 糝糕糕糕糕 आचार्य कुन्दकुन्द * अष्ट पाहुड़ स्वामी विरचित उत्थानिका आगे दीक्षा का बाह्य रूप कहते हैं :जहजायरूवसरिसा अवलंबियभुअ णिराउहा संता । परकियणिलयणिवासा पव्वज्जा एरिसा भणिया ।। ५१ । । हो यथाजात तो रूप, लम्बितभुज, निरायुध, शांत है। परक तनिलय आवासयुत है, प्रव्रज्या ऐसी कही । । ५१ । । अर्थ कैसी है प्रव्रज्या -'यथाजातरूपसद शा' अर्थात् जैसा तत्काल जन्मे हुए बालक का नग्न रूप होता है वैसा रूप जिसमें है । और कैसी है - 'अवलम्बितभुजा' अर्थात् लम्बायमान की गई हैं भुजाएँ जिसमें, बहुलता की अपेक्षा कायोत्सर्ग से खड़ा रहना जिसमें होता है। और कैसी है - निरायुधा अर्थात् आयुधों (शस्त्रों) से रहित है । और कैसी है- 'शान्ता' अर्थात् अंग - उपांग के विकार रहित शांत जिसमें मुद्रा होती है। और कैसी है—'परक तनिलयनिवासा' अर्थात् दूसरे के द्वारा बनाया गया निलय जो वसतिका आदि उसमें है निवास जिसमें, अपने को क त - कारित - अनुमोदना और मन-वचन-काय से जिसमें दोष न लगा हो ऐसी दूसरे के द्वारा बनाई हुई वसतिका आदि में जिसमें बसना होता है । ऐसी प्रव्रज्या कही है। भावार्थ कई अन्यमती बाह्य में वस्त्रादि रखते हैं, कई आयुध रखते हैं, कई सुख के लिए चलाचल आसन रखते हैं, कई उपाश्रय आदि रहने का निवास बनाकर उसमें बसते हैं और अपने को दीक्षा सहित मानते हैं उनके वेष मात्र हैं, जैन दीक्षा तो जैसी कही है वैसी ही है । । ५१ । । टि0- 1. 'श्रु0 टी0 ' - जिनदीक्षा में किसी दूसरे के द्वारा बनाए हुए उपाश्रय में निवास किया जाता है, सर्प के समान। जिस प्रकार सर्प अपना बिल स्वयं नहीं बनाता, अपने आप बने हुए अथवा किसी के द्वारा बनाये हुए बिल में निवास करता है उसी प्रकार जिनदीक्षा का धारक अपना उपाश्रय स्वयं न बनाकर पर्वत की गुफा तथा वक्ष की कोटर आदि अपने आप ब हुए अथवा किसी अन्य धर्मात्मा के द्वारा बनवाए हुए स्थान में निवास करता है । ' ४-५० 卐卐 卐卐糕糕糕 糕卐糕蛋糕卐米糕糕糕糕業業業卐業業
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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