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________________ अष्ट पाहुड़ta पाहड़M alirates स्वामी विरचित आचाय कुन्दकुन्द .... 888 Des/ ADDA Doo 添添添添添馬樂樂先养养業樂業樂業樂事業部 संयमी सामान्य का बाह्य रूप प्रधान करके उसे आयतन कहा। दूसरी में अन्तरंग-बाह्य दोनों की शुद्धता रूप ऋद्धिधारी मुनि ऋषीश्वर को कहा और इस तीसरी गाथा में जो मुनियों में प्रधान केवलज्ञानी हैं उनको सिद्धायतन कहा है। यहाँ ऐसा आशय जानना-'आयतन' नाम जिसमें बसा जाए, निवास किया जाए, उसका है सो धर्म पद्धति में जो धर्मात्मा पुरुष के आश्रय करने योग्य हो वह धर्मायतन है सो ऐसे मुनि ही धर्म के आयतन हैं, अन्य कोई वेषधारी, पाखंडी, विषय-कषायों में आसक्त और परिग्रहधारी धर्म के आयतन नहीं हैं तथा जैनमत में भी जो सूत्र के विरुद्ध प्रवर्तन करते हैं वे भी आयतन नहीं हैं, वे सब अनायतन हैं। बौद्धमत में पाँच इन्द्रियाँ, पाँच उनके विषय, एक मन और एक धर्मायतन शरीर-ऐसे जो बारह आयतन कहे गए हैं वे भी कल्पित हैं सो जैसा यहाँ आयतन कहा वैसा ही जानना, धर्मात्मा को उस ही का आश्रय करना, अन्य की स्तुति, वंदना, प्रशंसा एवं विनयादि नहीं करना-यह बोधपाहड़ ग्रन्थ करने का आशय है। और जिसमें ऐसे मुनि बसते हैं ऐसे क्षेत्र को भी आयतन कहते हैं सो यह व्यवहार है। ऐसा आयतन का स्वरूप कहा।।७।। उत्थानिका 添添添添添樂崇崇崇勇崇勇崇勇兼業助兼崇勇攀事業 आगे 'चैत्यग ह' का निरूपण करते हैं :बुद्ध जं बोहंतो अप्पाणं चेइयाई अण्णं च। पंचमहव्वयसुद्धं णाणमयं जाण चेदिहरं।। 8।। जाने निजात्मा ज्ञानमय, अरु अन्य को चैतन्यमय । उस ज्ञानमय शुद्ध महाव्रती को, चैत्यग ह तुम जानना।।8।। अर्थ जो मुनि १. 'बुद्ध' अर्थात् ज्ञानमयी आत्मा को जानता हो, २. अन्य जीवों को चैत्य अर्थात् चेतनास्वरूप जानता हो, ३. आप ज्ञानमयी हो तथा ४. पांच महाव्रतों से शुद्ध-निर्मल हो उस मुनि को हे भव्य ! तू 'चैत्यग ह' जान। 先崇崇崇明崇崇崇 - -騰崇明崇崇崇明崇站業
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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