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________________ १. सम्मत्तमणुचरंता करति दुक्खक्खयं धीरा।। गाथा २०।। अर्थ-सम्यक्त्व का आचरण करने वाले धीर पुरुष दुःखों का क्षय करते हैं। २. णाणसरूवं अप्पाणं तं वियाणेहि।। ३8 ।। अर्थ-उस ज्ञानस्वरूप आत्मा को तू जान। ३. जीवाजीवविभत्ती जो जाणइ सो हवेइ सण्णाणी।। ३9।। अर्थ-जो पुरुष जीव और अजीव के विभाग को जानता है वह सम्यग्ज्ञानी है। ४. रायादिदोसरहिओ जिणसासण मोक्खमग्गुत्ति।। ३9।। अर्थ-जिनशासन में रागादि दोषों से रहित ही मोक्षमार्ग है। । ५. दंसणणाणचरित्तं तिण्णि वि जाणेह परमसद्धाए।। ४०।। अर्थ-हे भव्य ! दर्शन, ज्ञान व चारित्र-इन तीनों को तू परम श्रद्धा से जान। ६. णाणगुणेहिं विहीणा ण लहंति ते सुइच्छियं लाह।। ४२।। अर्थ-ज्ञान गुण से हीन पुरुष अपनी इच्छित वस्तु-मोक्ष के लाभ को नहीं पाते। ७. चारित्तसमारूढ़ो अप्पासु परं ण ईहए णाणी।। ४३।। अर्थ-चारित्र में आरूढ़ ज्ञानी अपनी आत्मा में परद्रव्य को नहीं चाहता। सूक्ति र प्रकाश ३-४८
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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