SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 118
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गा० ३-'सुत्तम्मि जाणमाणो.... अर्थ-जो पुरुष सूत्र में प्रवीण है वह संसार के उपजने का नाश करता है जैसे डोरे से रहित सुई नष्ट हो जाती है और डोरे सहित नष्ट नहीं होती।।३।। गा० ४-'पुरिसो वि.... अर्थ-जिसको अपना स्वरूप द ष्टिगोचर नहीं है वह पुरुष सूत्र का ज्ञाता होकर स्वात्मा के प्रत्यक्ष द्वारा संसार के मध्य स्थित होता हुआ भी नष्ट नहीं होता है वरन् उस संसार का नाश करता है।।४|| गा० ५-'सुत्तत्थं जिणभणियं.... अर्थ-जो मनुष्य जिनेन्द्रभाषित सूत्र के अर्थ को, जीव-अजीव आदि बहुत प्रकार के पदार्थों को तथा हेय और अहेय तत्त्व को जानता है वही वास्तव में सम्यग्द ष्टि है।।५।। 'गा०६-'जं सुत्तं जिणउत्तं.... अर्थ-जो जिनभाषित सूत्र है वह व्यवहार रूप तथा परमार्थ रूप है उसे जानकर योगी सुख पाते हैं और मलपु ज का नाश करते हैं।।६।। 'गा० 8-'हरिहरतुल्लो... अर्थ-जो नर सूत्र के अर्थ, पद से रहित है वह नारायण तथा रुद्र के तुल्य होने पर भी स्वर्ग में तो उत्पन्न होता है और वहाँ से चयकर करोड़ों पर्याय धारण करता है परन्तु मोक्ष को प्राप्त नहीं होता। वह संसारस्थ ही कहा गया है।।७।। 'गा० 9–'उक्किट्ठसीहचरियं....' अर्थ-जो मुनि होकर उत्कष्ट सिंह के समान निर्भय चर्या करता है, बहुत तपश्चरणादि परिकर्म करता है तथा संघ का नायक कहलाता है पर जिनसूत्र से च्युत हुआ स्वच्छन्द विहार करता है वह पाप ही को प्राप्त होता है और मिथ्यात्व को प्राप्त होता है।18 || गा० १०-"णिच्चेलपाणिपत्तं... अर्थ-परम जिनवरेन्द्रों ने वस्त्र रहित दिगम्बर मुद्रा और पाणिपात्र आहार करने का जो उपदेश दिया है वही एक मोक्ष का मार्ग है और शेष सब अमार्ग हैं।।9।। गा० १५-'अह पुण अप्पा.... अर्थ-जो आत्मा को नहीं चाहता है किन्तु धर्म के अन्य समस्त आचरण करता है तो भी वह सिद्धि को नहीं पाता है और उसे संसार में ही तिष्ठने वाला कहा गया है।।१०।। २-४२
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy