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________________ अष्ट पाहुड़storate स्वामी विरचित आचार्य कुन्दकुन्द MANANAMA Doo ADeol RDog/ Dool Dod Doo अर्थ 崇崇崇崇崇步骤樂業業業業%崇明崇崇崇崇崇崇 __ जो मुनि 'ग्राह्य' अर्थात् ग्रहण करने योग्य जो वस्तु आहार आदि उनमें से तो वैसे ही अल्पग्राह्य है अर्थात् थोड़ा ग्रहण करते हैं, जैसे कोई पुरुष बहुत जल से भरा हुआ जो समुद्र उससे अपने वस्त्र को धोने के लिये वस्त्र धोने मात्र जल ग्रहण करता हैं और जिन मुनियों के इच्छा निव त हो गई उनके सब दुःख निव त हो गये। भावार्थ जगत में यह प्रसिद्ध है कि जिनके संतोष है वे सुखी हैं' इस न्याय से यह सिद्ध हुआ कि मुनियों के क्योंकि इच्छा की निव त्ति है, संसार के विषय-कषाय संबधी इच्छा किंचित् मात्र भी नहीं है, देह से भी विरक्त हैं इसलिए परम संतोषी हैं और आहारादि जो कुछ ग्रहण योग्य हैं उनमें से भी अल्प को ग्रहण करते हैं इसलिए वे परम संतोषी हैं, परम सुखी हैं-यह जिनसूत्र के श्रद्धान का फल है। अन्य सूत्र में यथार्थ निव त्ति का प्ररूपण नहीं है इसलिए कल्याण के सुख को चाहने वालों को जिनसूत्र का सेवन निरन्तर करना योग्य है।।२७।। छप्पय जिनवर की धुनि मेघ ध्वनि, सम मुख तैं गरजै। गणधर की श्रुति भूमि, वरषि अक्षर पद सरजै।। सकल तत्त्व परकाश करै, जग ताप निवारै। हेय अहेय विधान, लोक नीकै मन धारै।। विधि पुण्य पाप अर लोक की, मुनि श्रावक आचार फुनि। करि स्व-पर भेद निर्णय सकल, कर्म नाशि शिव लहै मुनि ।।१।। अर्थ जिनेन्द्र भगवान की ध्वनि मेघों की ध्वनि के समान मुख से गरजती है और गणधरों के कान रूपी भूमि पर बरसकर उसमें (उनके द्वारा) अक्षर एवं पदों की रचना होती है। वह सारे तत्त्वों का प्रकाश करती है, संसार का ताप दूर करती है और उससे प्राणी हेय एवं अहेय (उपादेय) का विधान मन में भली प्रकार अवधारण 崇养崇崇崇崇崇崇崇崇勇攀藤勇攀事業樂業禁帶男 崇明崇明崇明崇明崇崇 崇 明崇寨崇明崇明崇明崇明
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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