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________________ गाथा-८० __ आत्मा का मनन निश्चिन्त होकर करना चाहिए। निश्चिन्त होकर करना चाहिए - ऐसा । पाँच इन्द्रियों के विषय में उलझा हुआ उपयोग आत्मा का मनन नहीं कर सकता। पाँच इन्द्रियों के विषयों में उलझा हुआ मन, उस ओर की सावधानीवाला मन अन्तर अतीन्द्रिय आनन्द का ध्यान नहीं कर सकता। भगवान अतीन्द्रिय आनन्द इन्द्रिय से रहित ऐसे आत्मा का ध्यान, पाँच इन्द्रिय के विषय में उल्लसित हुआ मन अन्तर में एकाकार नहीं हो सकता। समझ में आया? इसलिए पाँच इन्द्रियों को संयम में रखना चाहिए। इन्द्रिय विजयी होना चाहिए और जगत् के आरम्भ से छूटने के लिए हिंसा, असत्य, चोरी और अब्रह्मपरिग्रह... यह पाँच कहे न? अव्रती भावों से विरक्त होकर अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और परिग्रह त्याग इन पाँच महाव्रतों का पालन करना चाहिए। साधुपद में द्रव्य और भाव दोनोंरूप से निर्ग्रन्थ होकर... मुनि को तो अन्तर में भी रागरहित निर्ग्रन्थ दशा है। बाहर में नग्न दशा, दिगम्बर दशा, अन्तर में निर्ग्रन्थ, तीन कषाय के अभावसहित आनन्द की दशा (वर्तती है)। ऐसे होकर एकाकी भाव से शुद्ध निश्चय द्वारा अपने शुद्धात्मा का मनन करना। लो, मुनियों को भी शुद्धात्मा का मनन करना, यही मुनिपना है, उन्हें मुनि कहते हैं। भगवान पूर्णानन्द स्वरूप में अन्तर एकाकार होकर मनन अर्थात् एकाग्र होना उसे मुनि कहते हैं और श्रावक गृहस्थ भी अपने शुद्धस्वरूप में एकाग्र होकर जितनी निर्मलता प्रगट की है, उसे समकिती और श्रावक कहते हैं। ऐसे आत्मा का ध्यान करना चाहिए। (श्रोता : प्रमाण वचन गुरुदेव!) श्री
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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