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________________ गाथा - ७९ मैं कषायरहित और चार संज्ञारहित शुद्धात्मा हूँ और सम्पूर्ण विश्व की आत्माएँ शुद्ध हैं। इस प्रकार की भावना करने से स्वानुभव की प्राप्ति होती है। स्वानुभव को ही धर्मध्यान और शुक्लध्यान कहते हैं । लो ! यह तो स्वानुभव को ही धर्मध्यान और शुक्लध्यान कहते हैं । दूसरे कहते हैं - शुभयोग को धर्मध्यान कहते हैं और शुद्धोपयोग को शुक्लध्यान कहते हैं। वे तो आठवें से शुद्धोपयोग कहते हैं, सातवें तक शुभभाव है, वे ऐसा कहते हैं । स्वानुभव - आत्मा पूर्णानन्द की दृष्टि करके अनुभव करना । अल्प निर्दोषता (प्रगट हो), उसका नाम धर्मध्यान है । विशेष निर्दोषता होना उसका नाम शुक्लध्यान है। बाकी है तो दोनों अनुभव । पवित्र आत्मा का अनुसरण करके होना, वह अनुभव है । उस अनुभव की उग्रता, वह शुक्लध्यान; उसकी मध्यमता, वह धर्मध्यान है। शुरुआत तो पहले समय हो गयी, जब से सम्यग्दर्शन हुआ तब से। समझ में आया ? ९६ आत्मानुशासन में कहा है, गम्भीर और निर्मल मन के सरोबर में जब तक चारों तरफ कषायरूपी मगरमच्छों का वास है... गम्भीर और निर्मल मनरूपी सरोबर में जब तक क्रोध, मान, मायारूपी मगरमच्छ का वास है, तब तक गुण समूह शंकारहित होकर वहाँ स्थिर नहीं रह सकता। समझ में आया ? जहाँ मगरमच्छ होते हैं, वहाँ दूसरे जीव नहीं रह सकते, खा जाते हैं। ऐसे ही क्रोध, मान, माया, लोभ मगरमच्छ जहाँ हैं, वहाँ गुणों का समूह शंकारहित नहीं रह सकता। ठीक उपमा दी है। इसलिए तू समताभाव, इन्द्रियदमन और विनय द्वारा उन कषायों को जीतने का यत्न कर। तीन गाथाएँ हुई । अब, अस्सीवीं है, वह आँकड़े की अन्तिम है, आँकड़े की अन्तिम है। ✰✰✰ पाँच के जोड़ों से रहित व दश गुण सहित आत्मा को ध्यावे बे-पंचहँ रहियउ मुणहि बे - पंचहँ संजुत्तु । बे-पंचहँ जो गुणसहिउ सो णिरूवुत्तु ॥ ८०॥ दस विरहित दस के सहित, दस गुण से संयुक्त । निश्चय से जीव जान यह, कहते श्री जिनभूप ॥
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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