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________________ गाथा-७० ७०, निर्मोही होकर आत्मा का ध्यान कर। एक्कुलउ जइ जाइसिहि तो परभाव चएहि। अप्पा झायहि णाणमउ लहु सिव-सुक्ख लहेहि ॥७०॥ यदि तू अकेला ही जायेगा... हे आत्मा ! तू अकेला देह, परिवार सबको छोड़कर जायेगा तो राग-द्वेष-मोहादि परभावों को त्याग दे। भगवान! पर में राग-द्वेष, पुण्य -पाप के भाव और पर में मोह छोड़कर अपना शुद्ध स्वभाव... योगसार है न! अपना शुद्ध पवित्र स्वभाव का अन्दर ध्यान कर। उसमें लौ लगा दे तो परभाव छूट जायेंगे। ज्ञानमय आत्मा का ध्यान कर। भगवान आत्मा ज्ञायक..., ज्ञायक..., ज्ञायक..., जाननेवाला..., जाननेवाला..., जाननेवाला..., जाननेवाला... यह जाननेवाला चैतन्य वह मैं हूँ। इसके अतिरिक्त कोई रागादि, (वह मैं नहीं हूँ) । जहाँ-जहाँ ज्ञान, वहाँ-वहाँ मैं; जहाँ-जहाँ ज्ञान नहीं, वहाँ-वहाँ मैं नहीं। रागादि, दया-दान-भक्ति-व्रत, यात्रा का विकल्प उत्पन्न होता है, वह आत्मा नहीं है, वह तो राग है। जहाँ-जहाँ ज्ञान, वहाँ-वहाँ आत्मा। जहाँ-जहाँ ज्ञान नहीं तो राग में यह ज्ञान नहीं है; (इसलिए वह मैं नहीं हूँ) समझ में आया? यह पुण्यपरिणाम है, वह ज्ञान नहीं है। जहाँ ज्ञान नहीं है, वहाँ आत्मा नहीं है। समझ में आया? अद्भुत सूक्ष्म, भाई! आत्मा... आत्मा। भाई! आत्मा तो चैतन्य ज्योत है न ! चैतन्यज्योत है। जहाँ-जहाँ चैतन्य है, वहाँवहाँ आत्मा है; और जहाँ-जहाँ रागादि उत्पन्न होते हैं, वहाँ चैतन्य नहीं है। आहा...हा...! समझ में आया? ऐसा अपना चैतन्यमय स्वरूप.रागादि अचेतन से अत्यन्त भिन्न है - ऐसा जानकर अपने स्वरूप की एकाग्रता करना, उसका नाम योगसार है। कहो, समझ में आया? तो तू शीघ्र ही मोक्ष का सुख प्राप्त करेगा। लो, आचार्य कहते हैं कि हे शिष्य! यदि तुझको यह निश्चय हो गया है कि तू एक दिन मरेगा, तब तुझे परलोक में अकेला ही जाना पड़ेगा; कोई भी चेतन या अचेतन पदार्थ तेरे साथ नहीं जायेंगे। जिनसे तू राग करता है, वे सब यहाँ ही छूट जायेंगे,... जिनसे तू राग करता है कि यह मेरे पिता, मेरी माता, मेरी स्त्री, मेरा परिवार, मेरा पुत्र, मेरा मकान, मुनीम (वे सब) जिनके प्रति तू राग करता है, वे सब छूट जायेंगे। समझ में आया? तब तेरा
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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