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________________ ७६ गाथा-७७ दो तजकर दो गुण गहे, रहे आत्म-रस लीन। शीघ्र लहे निर्वाण पद, यह कहते प्रभु-जिन॥ अन्वयार्थ - (जो बे छंडिवि) जो दो को अर्थात् राग-द्वेष को छोड़कर (बे गुण सहिउ अप्पाणि वसेइ) ज्ञान, दर्शन दो गुणधारी आत्मा में तिष्ठता है (लहु णिव्वाणु लहेइ) वह शीघ्र ही निर्वाण पाता है। (एमइँ जिणु सामिउ भणइ) ऐसा जिनेन्द्र भगवान कहते हैं। दो को छोड़कर दो गुण विचारे। लो, ग्रहण-त्याग का विकल्प भेद, यह भी व्यवहार से एक विकल्प है। बे छंडिवि बे गुण सहिउ जो अप्पाणि वसेइ। जिणु सामिउ एमइँ भणइ लहु णिव्वाणु लहेइ॥७७॥ जिनवरस्वामी ऐसा कहते हैं । जिनेन्द्र भगवान त्रिलोक के नाथ जिनेन्द्र प्रभु ऐसा कहते हैं कि जो दो को अर्थात् राग-द्वेष को छोड़कर... लो, ठीक! आत्मा वीतरागस्वरूप में से भेद पड़कर राग-द्वेष को छोड़कर ज्ञान-दर्शन दो गुणधारी आत्मा में तिष्ठता है... आत्मा में स्थित होना, परन्तु ज्ञान और दर्शन का धारक - ऐसे आत्मा में स्थिर होना। मूल तो आत्मा में स्थित होना है। ज्ञान-दर्शन का धारक ऐसा कहा है। ज्ञान-दर्शन का विचार करके, यहाँ प्रश्न नहीं है। यह तो ज्ञान-दर्शन का धारक भगवान आत्मा एकरूप है, उसमें 'अप्पाणि वसेइं' उस आत्मा में बसे । भेद में बसना, वह अभी आत्मा में बसना नहीं है। समझ में आया? उसमें समुच्चय नाम लिये थे। 'जाहँ एयहँ लक्खण' उसके लक्षण जानना। अब यह कहते हैं कि इन सब विचारों को रोककर यह आत्मा-दर्शनरूप का धारक है, ऐसे आत्मा में बसना। कहो, समझ में आया? दो के लक्षणवाला, ऐसा नहीं। दो का रूप वह एक आत्मा - ऐसे आत्मा में बसना। लो, आत्मा में बसना। ओ...हो...! अपने शुद्धस्वरूप भगवान में रुचि-ज्ञान और स्थिरता करने का नाम बसना कहा जाता है - ऐसा करे तो 'जिणु सामिउ एम भणई लहु
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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