SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 51
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योगसार प्रवचन ( भाग - २ ) क्योंकि मैं स्वयं ही परमात्मा होने योग्य हूँ । एक पीपल की चौसठ पहरी (चरपराहट) प्रगट हो गयी और एक पीपल चौसठ पहरी (चरपराहट की) ताकत रखती है। वह तो जड़ है इसलिए उसे पता नहीं है। इसी तरह एक को पूर्णदशा प्रगट हो गयी और यह पूर्ण दशा प्रगट होने की ताकत रखता है । मैं उसके समान हूँ । ५१ जैसे वीतराग परमेश्वर, जिन्होंने आत्मा में से राग-द्वेष नष्ट किया, अल्पज्ञपना नष्ट किया, सर्वज्ञ और वीतरागदशा जिनकी प्रगट हुई; वैसा ही मैं आत्मा हूँ, उनकी जाति में और मेरी जाति में कोई अन्तर नहीं है। समझ में आया ? नीचे गेहूँ की दृष्टान्त देंगे। जैसे हजार गेहूँ के दाने समान आकार और गुणोंवाले हों वे सब समान हैं तो ही सभी दाने अलग-अलग हैं। गेहूँ के हजार दाने हैं न? प्रत्येक दाने का आकार समान, आटा समान, भाव समान, तथापि वस्तु अलग है । इसी प्रकार प्रत्येक आत्मा का भाव-स्वभाव समान तथापि वस्तु अलग है, वस्तु एक नहीं है। समझ में आया ? जो भगवान परमात्मादशा को प्राप्त हुए, उस दशा का धारक शक्तिवान वह में स्वयं ही जिनेन्द्र हूँ। आहाहा ! वह मैं हूँ... और जरा सी दूसरी भाषा है। वह ही मैं हूँ.... ऐसे दो हैं। वही मैं हूँ ऐसा, वही मैं हूँ जोर दिया है। वही मैं हूँ, ऐसा अधिक जोर दिया है । जिन्हें पूर्णदशा प्रगट हुई, आत्मा होकर अन्तरशक्ति की व्यक्तता की, जैसे तिल में से तेल निकालकर - जैसे घड़े में शुद्ध पड़ा है, वैसा ही तेल तिल में पड़ा है। इसी प्रकार जिन्होंने अन्दर परमशक्ति थी उसे अनुभवदृष्टि एकाकार होकर प्रगट की है, वैसा ही मैं हूँ, ऐसा अन्तर में दृष्टि से आत्मा का स्वीकार करना, वह सुख को प्राप्त करने का सरल, सीधा मार्ग है । 1 शशीभाई! यह हाथ आवे नहीं, सुनने मिले नहीं और यह और वह करो, पचास -पचास, साठ-साठ वर्ष चले गये कितने ही को तो सत्तर ( पूरे हुए)। यह क्या है उसे सुनने नहीं मिलता। यह करो और यह छोड़ो और यह लो और यह दो, सेवा करो और करुणा करो, धूल करो और यह करो... कौन करता था ? धूल ! पर की सेवा कौन करे ? शरीर में रोग आवे तो मिटा नहीं सकता। स्त्री को रोग आवे तो छुड़ाने का बहुत भाव है, डाक्टर बहुत होशियार हो, स्वयं को रोग होवे तो छूट नहीं सकता, वह तो जड़ की अवस्था
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy