SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 49
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योगसार प्रवचन ( भाग - २ ) वह तो मन्दिर बनाना, पूजा करना, भक्ति करना, चलो 'शत्रुञ्जय जा आवें, वहाँ जा आवें तो धर्म हो गया।' धूल में भी धर्म नहीं है। तेरे 'शत्रुञ्जय' जा और लाख बार ऊपर चढ़ और नीचे उतर ( तो भी धर्म नहीं है ) । समझ में आया ? शुभराग हो, पाप से बचने के लिये शुभराग है। धर्म नहीं, धर्म नहीं, धर्म नहीं। समझ में आया ? यह सब बहुत बात की है। ४९ जब सर्व को एक समान शुद्ध देखा गया तब न कोई मित्र है न कोई शत्रु अपने को और सर्व को समान देखने पर राग-द्वेष का पता ही नहीं लगता । भगवान आत्मा अपने शुद्ध ध्रुव स्वभाव को देखने से, जिसमें राग-द्वेष भी नहीं है ऐसा देखने से, जिसमें स्वतन्त्रता प्रगट होती है तो उस प्रकार दूसरी आत्माएँ भी शुद्ध ध्रुव सत्व से भरपूर है, ऐसा देखने पर उनके प्रति राग-द्वेष करने का अवसर नहीं रहता। भाई ! समझ में आया? वह आत्मा भी पूर्णानन्द और सच्चिदानन्द ध्रुव शाश्वत् शक्ति में परिपूर्ण है । जैसे अपनी दृष्टि से अपना स्वरूप देखने पर स्वयं को शान्ति और विकाररहित भासता है, इस दृष्टि से दूसरे समस्त आत्माओं को देखो तो वे आत्माएँ भी पूर्णानन्द से भरपूर है । उनके राग-द्वेष आदि न देखे तो यह व्यक्ति मेरा विरोधी है और यह व्यक्ति मेरा मित्र है। यह बात नहीं रहती है । आहा... हा...! सर्वत्र समभाव और शान्तरस बहता है। भगवान आत्मा, अकेले शुभ-अशुभ विकल्प राग कषायभाव से रहित है - ऐसा श्रद्धा - ज्ञान करने पर अपने को शान्ति आ है और दूसरे आत्माओं को भी इस प्रकार देखने से उनके प्रति अनादर या कलुषितता नहीं होती। उनके स्वभाव पर समभाव, समभाव (रहता है)। भगवान है, वे भी भगवान हैं । जिस दिन अपने को सम्हालेंगे उस दिन भगवान हो जायेंगे। समझ में आया ? दूसरा कोई भगवान होने नहीं आयेगा, परमार्थ शक्ति उनमें भी पड़ी है। I निर्ग्रन्थ मुमुक्षु को उचित है कि इस तरह समभाव में रमण करके सामायिक चारित्र का पालन करे । सामायिक चारित्र । सामायिक अर्थात् अन्तर समता प्रगट करना । पूर्ण... पूर्ण... पूर्ण... पूर्ण... पूर्ण... ओहो... ! जिसका स्वभाव पूर्ण स्वभाव, उस पर दृष्टि जाने पर पूर्ण का स्वीकार करने पर अन्तरदृष्टि में समताभाव प्रगट होता है।
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy