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________________ योगसार प्रवचन (भाग-२) हो जावे, संसारमार्ग से मोक्षमार्गी हो जावे । लो ! इस टीका के काल में मेरा यह होओ - ऐसी आचार्य भावना करते हैं । मंगलमय अरहन्त को, मंगल सिद्ध महान । आचारज पाठक यती, नमहुँ सुख दान ॥ परम भाव परकाश का, कारण आत्मविचार | जिस निमित्त से होय सो, वंदनीक हरबार ॥ पाठक अर्थात् उपाध्याय । फिर पाँच मांगलिक करके अरहन्त भगवान आदि मंगलकारी हैं, भगवान हैं। ये पाँचों मंगलिक हैं । परमभाव प्रकाश कारण आत्मविचार है। यह आत्मा का अनुभव, वह परमभाव परमात्मा का प्रकाश करने का कारण है - ऐसा कहकर यह ग्रन्थ पूर्ण किया है। (मुमुक्षु : प्रमाण वचन गुरुदेव !) ४१९ । इति योगसार प्रवचन । जगत में बलिहारी है अहो! सन्तों के श्रीमुख से आत्मा के आनन्द की अथवा सम्यग्दर्शन की बात सुनने पर भी आत्मार्थी जीव को कैसा उल्लास आता है ! सन्तों के हृदय में से प्रवाहित वह आनन्द का झरना कैसी भी प्रतिकूलता को भूला देता है और परिणति को सुख - सागर स्वभाव की ओर ले जाता है । यही मुमुक्षु का जीवन ध्येय है। अहा! सम्यग्दर्शन कैसी परम शरणभूत वस्तु है कि किसी भी प्रसङ्ग में उसे स्मरण करने से जगत का सम्पूर्ण दुःख विस्मृत होकर आत्मा में आनन्द की स्फुरणा जागृत होती है। तब उस सम्यग्दर्शन के साक्षात् वेदन की क्या बात! वस्तुतः उन आनन्दमग्न समकिती सन्तों की जगत में बलिहारी है। ( रत्न संग्रह, पृष्ठ २ )
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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