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________________ योगसार प्रवचन (भाग-२) ली है, हाँ! (मात्र) दु:ख ऐसा नहीं, दुःख से डरे ऐसा नहीं । संसारह भय - भीयएण 'संसार' 'शब्द से चार गति । अकेला दुःख और उकताहट, वह तो द्वेष है। उसमें तो इसे सुख की, स्वर्ग की इच्छा है 1 ४१५ भगवान आत्मा के आनन्द से बाहर निकलने पर जो शुभाशुभपरिणाम होते हैं, उसका फल संसार है। वह समस्त संसार दुःखरूप है। समझ में आया ? सर्वार्थसिद्धि का भव करना, वह भव भी दुःखरूप है। समझ में आया ? तीर्थंकरप्रकृति का बन्ध होना, वह भाव भी दुःखरूप है - ऐसा कहते हैं, हाँ ! अरे... भगवान ! आनन्दसागर में से निकलना, (उसमें) चार गति का भव है कि अरे ! यह मुझे न हो । यहाँ पर कहेंगे, हाँ! योगीन्द्राचार्य मुनि ने आत्मा को समझाने के लिए.... आत्मा को समझाने के लिए। एकाग्रचित्त से इन दोहों की रचना की है। — ग्रन्थकर्ता योगीन्द्राचार्य ने प्रगट किया है कि उन्होंने अपने ही कल्याण के निमित्त से इन दोहों की रचना की है । दोहा कहे, उनमें से फिर (लोग) निकालते हैं। देखो ! इन्होंने दोहे रचे हैं या नहीं ? भाई ! यहाँ तो निमित्तपने हुआ, उसकी बात करते हैं । वह रजकण की दोहे की पर्याय तो अनन्त स्कन्ध की स्वतन्त्र हुई है। लिखा परन्तु यह लिखने का क्या आशय है ? यह समझना चाहिए न ! अरे... भगवान ! क्या हो ?' यह कहा ' देखो... स्वयं कह गये हैं कि किसी का रजकण का कर्ता आत्मा नहीं है । कर्ता हर्ता आत्मा एक रजकण की पर्याय का नहीं है और दोहा (कहे) दोहे मैंने किये ... यहाँ तो दोहे के रचना काल में मेरा एक विकल्प जो था, निमित्त था उसमें मैं था - ऐसा बताते हैं । मैं तो उसके ज्ञान में, विकल्प के ज्ञान में मैं हूँ । विकल्प में नहीं तो उसमें - पर की पर्याय में मेरी पर्याय स्पर्शित हुई है और हुई है ( - ऐसा नहीं है) । आहा... हा... ! समझ में आया ? - शब्द में ताकत है स्व - पर वार्ता कहने की। यह शब्द उसरूप परिणमे हैं । भगवान आत्मा का भाव वहाँ स्पर्श नहीं होता। (कोई ऐसा पूछे कि) तब ऐसा ही भाव कैसे आया ? परमाणु की ऐसी पर्याय उसके स्वयं के भावरूप परिणमित होने की है । क्या आत्मा भाव वहाँ उसे छूता है ? आत्मा की पर्याय वहाँ संक्रमित होती है रजकण की पर्याय में ? कर्ता नहीं, भाई! जहाँ विकल्प उत्पन्न हुआ, उसका भी कर्ता नहीं, वहाँ दोहे की रचना (का
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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